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________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 करते हैं। बौद्ध दर्शन में कर्मसिद्धान्त की चर्चा प्राप्त होती है। वहाँ आलयविज्ञान में वासनाएँ स्वीकार की गई हैं जो समय आने पर फल प्रदान करती हैं। जैन दर्शन की भाँति बौद्धदर्शन में कर्म को पौदगलिक या अचेतन नहीं माना गया है। बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया में आस्रव, संवर आदि पारिभाषिक शब्द जिस प्रकार जैनदर्शन में प्रयुक्त हुए हैं उसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी उनका प्रयोग दिखाई देता है। ये शब्द दोनों दर्शनों में लगभग समान अर्थ रखते हैं। जैनदर्शन में पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए तप का विधान है। बौद्धधर्म में तप को कायक्लेष मानकर छोड़ दिया गया, किन्तु जैनदर्शन आत्मानुशासन के लिए तथा पूर्वबद्ध कर्मों को शिथिल एवं निर्जरित करने के लिए बाह्य एवं आभ्यन्तर तप का प्रतिपादन करता है। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग ये छह आभ्यन्तर तप हैं। ये दोनों प्रकार के तप मनुष्य को आत्यसंयम के साथ संवर एवं निर्जरा का पथ प्रशस्त करते हैं। तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के फलभोगकाल एवं फलानुभव में कमी आती है तथा कर्मों की उदीरणा होकर उनकी शीघ्र निर्जरा हो जाती है। स्वाभाविक रूप से उदय में आने वाले कर्मों को समय से पूर्व उदय में लाने की प्रक्रिया उदीरणा कहलाती है। तप के द्वारा यह उदीरणा सम्भव होती है। गहनता से विचार किया जाए तो समभाव की साधना एवं आत्मजय का मार्ग तप के द्वारा प्रशस्त होता है। इसके द्वारा रागद्वेषादि विकार क्षीण होते हैं। जिस तप से विकारों पर विजय प्राप्त न हो तथा अहंकार, क्रोध आदि कषायों की वृद्धि हो, उस तप को जैनदर्शन में अज्ञान तप या बाल तप कहकर हेय माना गया है। सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञानपूर्वक किया गया तप ही जैनदर्शन में निर्जरा का साधन माना गया है। अज्ञानपूर्वक किया गया दीर्घकालीन तप कोई अर्थ नहीं रखता। बौद्धदर्शन में जिस तप को कायक्लेश स्वीकार कर हेय माना गया है वह सम्भवतः दीर्घकालीन अनशन तप है। तप के अन्य भेद दुःखमुक्ति की साधना में किसी भी प्रकार से हेय नहीं माने जा सकते। वासना के संस्कार को तोड़ने में तप की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, इससे बौद्ध दर्शन भी असहमत नहीं हो सकता। भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, प्रतिसंलीनता, प्रायचित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि भेद किसी न किसी रूप में उन्हें भी मान्य ही हैं, भले ही उन्होंने इनका सीधा प्रतिपादन न किया हो। तीर्थकर महावीर की वाणी का कुछ अंश जैनागमों के रूप में सुरक्षित है। इन आगमों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका, टब्बा आदि व्याख्यासाहित्य भी लिखा गया है जो जैन साहित्य की विशालता को इंगित करता है। दिगम्बरपरम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि ग्रन्थ सुरक्षित हैं जो पूर्ववर्ती कर्मवाद के अंशरूप में स्वीकार्य हैं। कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड आदि कृतियाँ आगमवत् मान्य की गई हैं। तिलोयपण्णत्ति, भगवती आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थ भी दिगम्बरपरम्परा की थाती हैं। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् दोनों परम्परा के ग्रन्थों का अध्ययन करें तो जैनपरम्परा की प्रस्तुति अधिक सशक्त रूप में हो सकती है। इस दिशा में विद्वानों ने कदम भी आगे बढ़ाये हैं जो स्तुत्य हैं।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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