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________________ 12 अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 ३. अस्तेय या अचौर्य - ऋग्वेद में चोरी के प्रति घृणा का भाव व्यक्त करते हुए चोर को दण्डित करने की अनेकत्र उल्लेख है। कतिपय स्थल द्रष्टव्य है उत स्तैन वस्त्रमथिं न तायुमनु कोशन्ति क्षितयो भरेषु। (वस्त्र हरण करने वाले के शरीर को देखकर लोग चीत्कार करने लगते हैं।) स्तेनं बद्धमिवादिते। १ (वह चोर को बांधकर दण्ड प्रदान करता है।) यजुर्वेद में तो स्पष्ट रूप से चोर को हिंसक घोषित करते हुए अग्निदेव से उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की गई है। विविध स्मृतियों में चोरों को की गई दण्ड व्यवस्था से सहज ही वैदिकाचार में चोरी को पाप एवं अस्तेय या अचौर्य को व्रत मानने की परंपरा का संकेत मिलता जैनाचार में अदत्त वस्तु को ग्रहण करना चोरी कहा गया है- 'अदत्तादानं स्तेयम्।४३ इसमें प्रमाद का योग रहता है। चोरी करने के उपाय बतलाना, चोरी का माल खरीदना, राज्य के नियमों के विरुद्ध कर आदि बचाना, माप-तौल को कमती-बढ़ती रखना और अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाना ये पांच अचौर्य के दोष कहे गये हैं। इनमें भारतीय दण्ड संहिता की चोरी की सभी धाराओं का प्रायः समावेश हो गया है। भगवती आराधना में तो यहां तक कह दिया गया है कि सुअर का घात करने वाला, मृग आदि को पकड़ने वाला और परस्त्री गमन करने वाला, इनसे भी चोर अधिक पापी है।५ अचौर्य व्रत का संयम की वृद्धि में कारण कहा गया है। ४. ब्रह्मचर्य - एक गृहस्थ की पूर्णता वैवाहिक जीवन से होती है। ऋग्वेद के सूर्य सूक्त में वर कन्या का पाणिग्रहण करते हुए कहता है कि मैं सौभाग्य के लिए तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ। तू मेरे साथ वृद्ध अवस्था को प्राप्त करे। तू गार्हपत्य कर्म अर्थात् धर्मसाधना के लिए प्रदान की गई है। विवाह संपन्न हो जाने पर उपस्थित जन वर-वधू को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं इहैव स्त मा वियौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम्। क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे।।४७ तुम दोनों यहाँ रहो, कभी वियुक्त न हो, पुत्रों एवं पौत्रों के साथ क्रीडा करते हुए अपने घर में प्रसन्न रहते हुए पूर्ण आयु को प्राप्त करो। अथर्ववेद में पत्नी की यह हार्दिक इच्छा प्रकट की गई है कि तुम केवल मेरे हो। तुम अन्य स्त्रियों की चर्चा भी मत करो।८ इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्वपतिसन्तोष या स्वपत्नीसन्तोष को गृहस्थ का एकदेश ब्रह्मचर्य व्रत माना गया है। जैनाचार में भी ब्रह्मचर्याणुव्रत में यही भावना विशदता से अभिव्यक्त होती है। जैनाचार में अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्य को सबसे प्रधान माना गया है। निश्चय से तो ब्रह्म या आमा में रमणता ही ब्रह्मचर्य है, किन्तु व्यवहार में परस्त्रियों के प्रति राग रूप परिणामों का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। गृहस्थ के ब्रह्मचर्याणुव्रत का कथन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी का कथन है कि जो पाप के भय से न तो स्वयं परस्त्री के प्रति गमन करे न दूसरों को गमन करावे वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। स्याद्वादमंजरी में वैदिक परंपरा का एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहा गया है
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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