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________________ समण सुत्तं में उद्धृत कर्म सूत्रों की उपादेयता कर्म शक्ति का प्रतिघात करता है एवं वेदनीय आदि चार कर्म शुभाशुभ के हेतु बनते हैं। व्यक्ति दिन में अनेक प्रकार की प्रवृत्ति करता है। उसे यह भान नहीं होता कि किस प्रवृत्ति को करने से कौन-से कर्म बंधेगे, उसके साथ होने वाली घटनाएं क्यों घटित हो रही है, किस कर्म का क्या फल मिलता है, आदि की पूर्ण जानकारी न हो तो वह कर्म बंधन की श्रृंखला में जकड़ता रह जाएगा और कभी इससे मुक्त नहीं हो पायेगा। यह गाथाएं इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इन आठ कर्मों को जानने से व्यक्ति असत् प्रवृत्ति से दूर रहकर कर्मों के बंधन को कम करने का प्रयत्न कर सकता है। समण-सुत्तं के कर्मसूत्र में उद्धृत यह गाथाएं जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण। सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्म। कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु। दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं। अर्थात् जिस समय जीव जैसे भाव रखता है, वह उस समय वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध भी करता है। प्रमत्त मनुष्य शरीर और वाणी से मत्त होता है तथा धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह राग-द्वेष-दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का संचय करता है। इन दोनों ही गाथाओं में कर्म बंधन करने में व्यक्ति के भावों पर प्रकाश डाला गया हैं। कर्म बंधन में दो आस्रव मुख्य है-कषाय और योग। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ। योग अर्थात् प्रवृत्ति। मन, वचन या शरीर इन तीनों से जब भी जीव किसी प्रकार का योग करता है तब कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है। वे कर्म पुद्गल आकर आत्मा से चिपककर एकमेक हो जाते हैं उसी को बंधन कहा जाता है। योग के साथ जितना-जितना राग और द्वेष होगा या जितना-जितना क्रोध आदि का भाव होगा उतनी-उतनी बंधन की स्थिति और अनुभाग की तीव्रता भी रहेगी। अच्छे भावों से अर्थात् मोह रहित, क्रोध आदि से रहित प्रवृत्ति होने पर व्यक्ति अच्छे कर्मों अर्थात् निर्जरा के साथ-साथ पुण्य कर्म का उपार्जन भी करता है। भगवान महावीर ने कहा भी हैं सुचिन्ना कम्मा सुचिन्ना फला भवंति दुचिन्ना कम्मा दुचिन्ना फला भवंति। अच्छे कर्मों का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा। राग और द्वेष ये कर्म बंधन के मूल कारण हैं। राग-द्वेषात्मक भावों से युक्त व्यक्ति बुरे कर्मों का संचय करता है और राग-द्वेष से रहित व्यक्ति अच्छे कर्मों का बंधन करता है। ये गाथाएं इसी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को प्रतिपादित करती है कि जैसा भाव होता है वैसा ही बंधन भी होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह श्लोक नैतिकता की पृष्ठभूमि है। इससे व्यक्ति असत् प्रवृत्ति से दूर और सत् प्रवृत्ति में संलग्न रहने का प्रयत्न करेगा। बहुत बार यह प्रश्न उपस्थित होता है कि हम नैतिक क्यों बने? हमें अच्छे कार्य करने की प्रेरणा क्यों दी जाती है? इसका समाधान इन्हीं गाथाओं में निहित है। व्यक्ति राग-द्वेष से प्रेरित होकर कार्य करता है तो उसके वैसे कमों का बंधन भी होता है। अनैतिक कार्य जैसे -
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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