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________________ आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं श्रमण परंपरा : कल आज और कल आचार्य श्री बोरगांव वाले आदिसागर जी के तपश्चरण से बहुत प्रभावित रहते थे जो सात दिन उपवास रखकर आठवें दिन आहार लिया करते थे। सुरीला गला होने के कारण एकतारा' वाद्ययंत्र पर स्तुति व स्तोत्र गाते थे, जिसे लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। ऐलक दीक्षा जब आपने देवप्पा स्वामी (मुनि देवेन्द्र कीर्ति) से दीक्षा के लिए प्रार्थना की तो आपने यही कहा था कि क्रमपूर्वक संयम में आरोहण करो। गुरू आज्ञा शिरोधार्य कर क्षुल्लक-व्रत लेने के पश्चात् आपने गिरनार पर्वत पर वस्त्रखण्ड का त्यागकर ऐलक पद अंगीकार किया। मुनि दीक्षा - बाद में यरनाल के पंचकल्याणक महोत्सव में आपका मिलन पुनः मुनि देवेन्द्रकीर्ति से हुआ और आपने निर्ग्रन्थ दि. मुनि दीक्षा के लिए प्रार्थना की। मुनि देवेन्द्रकीर्ति ने कहा - यदि यह पद लेकर निर्दोष रूपेण पालन न किया तो जीव दुर्गति को प्राप्त होता है। अस्तु सोच विचार कर दृढ़ निश्चय करें, शीघ्रता में कार्य करके पीछे पछताना ठीक नहीं। ऐलक शांतिसागर ने कहा- स्वामिन ! आपका उपेदश अक्षरशः पालन करूँगा। व्रतों में दूषण, स्वप्न में भी नहीं लगने दूंगा। अतः मुनि देवेन्द्र कीर्ति ने सन् १९२० वि. सं. १९७६ के दीक्षा कल्याणक के दिन फाल्गुन शु. १४ को केशलोंच पूर्वक ऐलक जी को जैनेश्वरी दीक्षा के संस्कारों से संस्कारित कर मुनि शांतिसागर नाम की घोषणा की। श्री देवेन्द्रकीर्ति के बारे में स्व. आर्यिका अजितमती ने बताया था कि आचार्य श्री के दीक्षा गुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति जी, अंकलीकर मुनि आदिसागर जी महाराज की भांति आहार के लिए जाते समय वस्त्रखण्ड शरीर पर लेते थे। चौके में जाने पर उसे उतार देते थे। आते वक्त फिर ले लेते थे और निवास स्थान पर आने पर पृथक कर देते थे। अतः श्री आचार्य शांतिसागर जी की मुनि दीक्षा के बाद देवेन्द्रकीर्ति जी ने, श्री शांतिसागर जी के पास नग्नत्व में लगने वाला दोष छोड़ने के लिए छेदोपस्थापना की और प्रायश्चित लेकर पुनः दीक्षा ली। इस प्रकार मुनि शांतिसागर जी म० ज्ञान-वैराग्य के संस्कार पूर्व भव से लेकर आये थे, अस्तु उन्होंने नैसर्गिक वैराग्य होने के कारण विषम परिस्थितियों में भी आगम के प्रतिकूल चर्या नहीं की। श्रमण परम्परा - कल (गत) श्रमण परंपरा की जो धारा कुछ समय से छिन्न-भिन्न जैसे हो रही थी, उसे आपने पुनरुज्जीवित कर संघ का निर्माण प्रथम बार किया। अतः समडोली नगर में आपने मुनिराज वीर सागर जी एवं श्री नेमिसागर जी को दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा दी। इस शुभावसर पर चतुःसंघ ने १९२४ आषाढ शुक्ल ११ बुधवार को आचार्य परमेष्ठी के पद पर प्रतिष्ठित किया। आपके युग में मिथ्यात्व की आराधना रूढ़िगत होती थी और लोग अपने घरों में कुदेव विराजमान कर उनकी पूजा करते थे। आपने प्रतिज्ञा ली कि जिसके यहां ये दोनों बातें होती होंगी, उसके यहां आहार नहीं लेंगे। इस प्रतिज्ञा से आचार्यश्री को यद्यपि बहुत कष्ट उठाने पड़े परन्तु उन्होंने मिथ्यात्व का रोग शीघ्र दूर कर दिया।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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