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________________ भारतीय कला में जैन दर्शन व कला का संगम योगाभ्यास (हड़प्पन रोट इन लैगुंइज, डॉ. रमेश जैन, पुराभिलेख पत्रिका) सींग धारण किये एक व्यक्ति तख्त जैसे आसन पर विराजमान है । यह व्यक्ति योगसाधना में रत है। इसी तरह एक मोहर पर छोटे सींग वाले एक सांड़ को ऋषभ के प्रतीकरुप में माना है। ऐसे कई उदाहरण है जो जैन धर्म के प्रतीकों के नजदीक है। एक नग्न ध्यानावस्था योगी की मूर्ति जिसकी दृष्टि नाक के अग्रमान पर है। प्राप्त मोहरों के ऊपर ध्यानस्थ पुरूष तथा पशु, हाथी, सिंह, हिरण, महिष साथ-साथ दिखायें है। एक अन्य गोल मोहर पर ध्यानमग्न नग्न पुरूष है तथा चारों तरफ लता मण्डप है। संभवतः इसे भगवान बाहुबली का चित्र कहा जा सकता है। “जैन परम्परा और प्रमाण" में मुनि विद्यानन्दजी ने इन्हें जैन कला की मान्यता दी है। मुख्यतः सिन्धु घाटी में कुछ प्रतीक मिले है। जैसे - पुरूदेव - (ऋषभदेव) नग्न खण्डगासन, कायोत्सर्ग मुद्रा अवस्थित, बाहुबली, शीर्षोवरि अभिमण्डित त्रिशुल (त्रिरत्न का प्रतीक) साथियाँ, मृदुलता पर्ण आदि जैन परम्परा के प्रमाण है। जैन दर्शन ने प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक युग तक कला में चाहे मूर्ति हो, वास्तु हो या चित्रकला अपना प्रभाव व उपस्थिति को दर्शाता है। प्रागैतिहासिक गुफाओं में भी प्राप्त आड़ी-तिरछी रेखाओं में भी नग्न मानव कृतियाँ काफी कुछ प्रतीक रुप में जैन परम्परा का बोध कराती है। इसी तरह भिति चित्रों की विधिवत् परम्परा में ३ शताब्दी ई. पू. में जोगीमारा के चित्रों को डॉ. ब्लाख तथा असित कुमार हाल्दर तथा क्षेमेंन्द्र नाथ कला मनीषियों ने अपने गहन अध्ययन के बाद इन्हें प्राचीनतम् तथा जैन कला के चित्र कहा है। यहाँ नग्न मानव कृतियाँ स्पष्टतः जैन मुनियों का सकेंत देती है। यहां माँ त्रिशला का चित्र बड़ा ही भावपूर्ण है। ऐसे कई नग्न दृश्य यहाँ है, कालान्तर में इसमें शिवलिंग की स्थापना हो गयी है एंव भिति चित्र क्षतिग्रस्त हो गये। जोगीमारा के बाद बौद्ध कला के अवशेष अजन्ता व बाघ में उत्कृष्ट है किन्तु साथ में जैन कला कें भिति चित्र भी अनवरत रुप में बनते रहे। ७ वीं शती में बादामी की गुफाओं के मिति चित्र बीजापुर में आइहोल के निकट वात्सपिपुरम् पर्वतो के मध्य चित्र है। इनमें बादामी की गुफा सं. ४ में जैनधर्म से सम्बन्धित उत्कीर्ण कला स्पष्ट है। बादामी में जैन कला का उत्कृष्ट रुप दिखाई देता है। जिसमें महावीर स्वामी की ध्यानस्थ परम्परा साथ ही पार्श्वनाथ और बाहुबली की कायोत्सर्ग मूर्तियाँ बनी है। दक्षिण भारत मे तमिलनाडु में सित्तलवासल की गुफा जैन मन्दिर ६०० से ६२५ ई. के मध्य बने है। इन्हे पल्लव वंश के शासक महेन्द्र वर्मन ने बनवाया था। यहाँ भित्ति व उत्कीर्ण दोनो प्रकार के चित्र है। चित्रों का विषय जैन तीर्थकरों के पौराणिक कथानक पर आधारित है। सित्तलवासल में प्राचीन जैन मन्दिर हैं। यहाँ जैन तीर्थकारों के चित्र है। इसमें दूसरी सहत वाले चित्रों में अपभ्रंश शैली का चित्रण है। रेखाओं के माध्यम से आकारों का सौष्ठव निखारा गया है। इनमें हरा , पीला तथा भूरा रंगों का संयोजन किया गया है एंव दिगम्बर जैन सम्प्रदाय से सम्बंधित चित्र है। चित्र कलात्मक व भावात्मक रुप में उत्कृष्ट है। कुशाण काल में भी मथुरा भी जैन धर्म की मूर्तिशिल्प के विकास का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। गुप्त कालीन जिन मूर्तियों को भी विभिन्न मुद्राओं यथा नग्न मुद्रा, अजानबाहु, ध्यानमुद्रा आदि मे प्रस्तुत किया
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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