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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 काल अनुभव में आता है, यह सब पुद्गल की पर्याय है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि इन जीव-पुद्गल आदि द्रव्यों का परिणमन किसके निमित्त से होता है? यदि कहा जाय कि उत्पन्न होना, व्यय होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है तो इसके लिए अन्य निमित्त की क्या आवश्यकता? तो इसके लिए यह तर्क है कि इस तरह सर्वथा स्वभाव से ही प्रत्येक द्रव्य का परिणमन माना जाता है तो गति, स्थिति और अवगाह को भी स्वभाव से मान लेने में क्या आपत्ति है। इस अवस्था में मात्र जीव और पुद्गल दो द्रव्य शेष रहेंगीं, शेष का अभाव हो जायेगा। द्रव्यों से एक तथ्य ध्यातव्य है कि छहों द्रव्य लोक में ठसाठस भरे हुए हैं, एक-दूसरे से मिले हुए हैं फिर भी वे अपना-अपना स्वरूप नहीं छोड़ते हैं। परन्तु यह जीवद्रव्य अन्य द्रव्यों के कारण से अपने स्वरूप को तो नहीं छोड़ता लेकिन उनके कारण विकृत अवश्य हो जाता है। हमें कभी भी अपने स्वरूप को न छोड़कर मात्र स्वभाव में लीन रहना चाहिए तभी हमारा कल्याण हो सकता है। संदर्भ सूची: 1. त.सू. 5/29 2. वही 5/30 3. आ. मी. 59-60 4. त. सू. 5/38 5. स.सि. 5/2/267 6. पं.का.गा.10, प्र.सा. 2/3-4 7. त.सू. 5/41 8. न्या. टीका सूत्र 78 9. त.सू. 5/42 10. स.सि. 5/38/231 11. आ.प. सूत्र 15 12. पं.का. गाथा 13 13. ध. 1/1,1,1/17 14. त.सू. 5/1,39 15. वही 2/8 16. बृ.द्र.सं. गाथा 2-3 17. त.सू. 5/23 18. त.वा. 5/1/24 19. पं.का. गा. 74 20. त.सू. 5/25 21. नियमसार गा.26 22. पं.का. गा. 76 23. त.सू. 5/19-20 24. वही 5/22 -शोधार्थी जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय लाडनूं, (राजस्थान)
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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