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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 वहां सम्यग्दृष्टि देवों द्वारा 'मण्णतया तत्थजिणिंद पूज' विशुद्धि पूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की जाती है (3/239) एवं मिथ्यादृष्टि देवों द्वारा 'मिच्छा जुदा ते य जिणिंद पूज' नित्य जिन प्रतिमाओं की पूजा की जाती है। (3/240) भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव जब जिनप्रतिमाओं को पूजते हैं तब एक इन्द्र और अन्य विभूति युक्त देव, जिनके अधीन यक्षादि हैं; श्रीदेवी एवं यक्षादि को क्यों पूजेंगे? विचारणीय है। अपने अधीनस्थों, हीनपद वालों की पूजादि तो लौकिक जगत् में भी सत्ता के प्रमुख द्वारा नहीं की जाती। अधीनस्थों की पूजा या स्तुति करने का सुझाव या समर्थन वज्रमूढ़ भी नहीं कर सकता? ___4) व्यंतर लोक में भी सम्यग्दृष्टि देवों द्वारा 'जिणिंद-पडिमाओ पूजंति' (6/16) एवं मिथ्यादृष्टि देवों द्वारा 'जिणिंद-पडिमाओ' जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा की जाती है (6/17)। वहाँ भी देवी-यक्षों की पूजा नहीं होती। यक्ष अपने हमसाथी यक्ष की पूजा कैसे कर सकते हैं? विवेक का औचित्य उनके साथ भी है। उच्चपद और समान पद की मर्यादाओं का निर्वाह देवलोक में सहज होता है। वहां कुतर्क और मिथ्या वाक्जाल या उन्मादी व्याख्या एवं कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं है। ___5) व्यंतर देवों के आठ भेद हैं- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। यक्ष देवों के माणिभद्र, पूर्णभद्र (दोनों इन्द्र हैं) शैलभद्र आदि बारह भेद हैं (5/25, 42-43)। समवशरण की चारों दिशाओं में चार दिव्य धर्मचक्र यक्षेन्द्रों के सिर पर स्थित होना, किसी का उपकार नहीं किन्तु कुबेर की व्यवस्था है (4/879 एवं 922)। धर्मचक्र धारण करने से यक्षेन्द्र को गर्भगृह में शोभा/सम्मान का अवसर मिला किन्तु पूज्य नहीं हुए। 6) श्रीदेवी नाम की एक सौधर्म इन्द्र की देवी है। इसका निवास हिमवान् पर्वत के पद्मद्रह के कमल में है (4/1694)। इस देवी के परिवार में सामानिक, तनुरक्षक, तीन प्रकार के पारिषद्, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक जाति के देव होते हैं (4/1695)। कमल पुष्पों पर भवनों के समतुल्य जिनेन्द्र प्रासाद होते हैं। जहां चंवर, भामण्डल, त्रिछत्र सहित जिनेन्द्र प्रतिमाएं शोभायमान हैं (4/1715-1717)। इस श्रीदेवी का यक्षेन्द्र जैसा कोई योगदान नहीं दर्शाया गया। श्रुतदेवी का कोई उल्लेख तिलोयपण्णत्ति में नहीं मिला, अन्वेषणीय है। 7) देव लोक के जिनमंदिरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा नहीं होती वे निसर्गरूप से प्रतिष्ठित एवं पूज्य होती हैं किन्तु मनुष्यलोक में मूर्तियों की पूजा विधिवत् प्रतिष्ठा करने के उपरांत होती हैं। अप्रतिष्ठित मूर्तियाँ अपूज्य होती हैं। तीर्थकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा और पूजा श्रमण संस्कृति का चिह्न है। अनुकृति की प्रतिकृति (टू कॉपी) की मूढ़ विकृतियाँ तीर्थकरों का जन्म कर्मभूमि में होता है। कर्मभूमि में ही उनके गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और मोक्ष कल्याणक होते हैं। यहीं उनकी धर्मसभा-समवशरण की रचना होती है। यहीं तीर्थंकर की वाणी-दिव्य ध्वनि खिरती है। चतुर्विध संघ की रचना भी कर्मभूमि में होती है और तीर्थंकरों की उपासना-पूजा हेतु पंचकल्याणक पूर्वक जिन प्रतिमाओं की
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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