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________________ अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011 आचरणों द्वारा निर्मल, सुखी जीवन एवं समाजोपयोगी बनने के साथ मोक्ष के परमानन्द के पात्र नहीं बन सकते। संस्कारों की महिमा धवला, मूलाचार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, सर्वार्थसिद्धि, द्रव्य संग्रह आदि ग्रंथों में गाई गई है। 76 प्रथम आधान क्रिया का उद्देश्य षट्कर्मों के पालन के साथ सुयोग्य सुपुत्र या सुपुत्री के लिए भौतिक भोगाभिलाष निरपेक्ष पति-पत्नी संसर्ग से है पर वर्तमान भौतिकवादी युग में पति-पत्नी दोनों विपरीत दिशा में चल रहे हैं। अतः सुयोग्य और धार्मिक संतान का लक्ष्य पूरा होना कठिन हो गया है। प्रथम “ आधान क्रिया” के विषय में "महापुराण" में कहा गया है आधानं नाम गर्भादी संस्कारी मंत्रपूर्वकः । पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया ॥७०॥ 'श्रावक के षट्कर्मों में प्रथम देवपूजा अहंन्त देव की पूजाकर मंत्राराधनापूर्वक गर्भ में रहने के पूर्व ऋतुमती के स्नान के पश्चात् अपनी पत्नी के साथ सहवास करे | 17011 सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ।। १३४ ।। " ऋतुकाल में रजोदर्शन से छठी रात्रि में ही संतान की कामना से पति-पत्नी को सहवास करना चाहिए। यह क्रम केवल शक्तिशाली पुरुषों की अपेक्षा रखता है। जो शक्तिहीन हैं उन्हें यथाशक्ति ब्रह्मचर्य पालते हुए सहवास करना चाहिए। 134 ।। सन्तानार्थ सहवास की बात "जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष" में चौथे स्नान के बाद लिखी है। यह प्रचलित परंपरा के अनुसार है ऐसा मैं मानता हूँ जबकि पं. शिवजी राम पाठक ने " जैन संस्कार विधि" पृष्ठ 47 पर छठे स्नान के बाद रात्रि में सहवास की बात संतान कामना की भावना से लिखी है। उच्च भावनाओं से सन्तानार्थ सहवास वंशपरंपरा तथा धार्मिक परंपरा चलाने के लिये अनिवार्य है। आ. समन्तभद्र ने "रत्नकरण्डक श्रावकाचार" में लिखा है स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविना ॥ २६ ॥ " अभिमान से जो चारों संघों के सदस्यों का गर्व से चूर हो उनका अपमान करता है। वह आत्मीय धर्म का अपमान करता है क्योंकि धार्मिक समाज के चारों संघों के सदस्यों के बिना या धार्मिक मानवों के बिना धर्म नहीं चल सकता या नहीं पल सकता या पाला जा सकता । " 30 । आचार्य समन्तभद्र ने यह भी कहा है गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥३३॥ " निर्मोह या मोहनीय कर्म रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है किन्तु मोही मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है अतः मोही मुनि से निर्मोह गृहस्थ श्रेष्ठ है। "
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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