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________________ पूजा में मंत्रों की उपादेयता - डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन जैन परम्परा में श्रावक और श्रमण ये शब्द संज्ञाएँ तीर्थकरों द्वारा प्रणीत धर्म का आचरण करने के कारण सार्थक हैं। दान एवं पूजा श्रावकधर्म हैं और ध्यान तथा अध्ययन श्रमण धर्म हैं। षडावश्यकों में भी श्रावकों के लिए पूजन आवश्यक मानी गई है। आचार्य वीरसेन के अनुसार दान, पूजा, शील और उपवास श्रावकधर्म माने गये हैं। आचार्यों ने लिखा है कि जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान् का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, उनका जीवन निष्फल है। आचार्य समन्तभद्र ने बताया है कि इच्छित फल प्रदान करने वाले तथा काम बाण को ध्वस्त करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पूजन करना समस्त दु:खों का नाश करने वाला है। द्रव्य पूजा और भावपूजा ये दो पूजा के प्रकार हैं। द्रव्यपूजा भावपूर्वक ही फल प्रदान करती है। पूजा की मंत्रों के साथ अन्वय व्याप्ति है। जहाँ-जहाँ पूजा होगी, वहां वहां मंत्र अवश्य होंगे। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि मंत्र जहाँ हों, वहाँ पूजा भी अवश्य हो। बिना द्रव्य के भी पूजन हो सकती है, परन्तु मंत्रों के बिना पूजा संभव नहीं है। द्रव्य पूजा में जो भी द्रव्य अर्पण किया जाता है, वह भी मंत्रित होता है, अकेला द्रव्य अर्पण पूजा नहीं कहला सकता। अन्यथा दुकानदार मंदिर में क्विटलों द्रव्य पहुँचाता है, जिससे पूजा का सभी फल उसी के खाते में चला जाये, परन्तु ऐसा नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जब भावपूर्वक मंत्राश्रित पूजा होगी तब उसका फल भी अवश्य प्राप्त होगा। यह संभव है कि परिस्थिति भिन्नता के कारण पूजकों के फल प्राप्ति में भिन्नता हो सकती है तथा भावों की स्थिति के अनुसार फल भी तात्कालिक अथवा कालान्तरभावी हो सकता है। यह निश्चित है कि पूजा का फल प्राप्त अवश्य होगा। पूजा में प्रयुक्त मंत्रों में अक्षर-शब्दात्मक मंत्रों को चित्रित किया जाता है, जिसके कारण ही वे मंत्र कहलाते हैं। मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों ही पौद्गलिक हैं, परन्तु वे चेतन के भावों के सहकार से कार्यकारी बनते हैं। यहाँ यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि पूजा में पंचपरमेष्ठी का आश्रय लेकर ही सामान्य मंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जिसका परम लक्ष्य उन जैसे बनने के लिए मोक्षमार्ग ही होता है। पूजा में प्रयुक्त होने वाले अन्य विशेष मंत्र मोक्षमार्ग प्राप्त कराने वाले मंत्रों के सहयोगी मात्र हैं। भाव सहित मंत्रों से युक्त पूजा से पूजक की असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती रहती है। याग, यज्ञ, क्रतु, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये पूजा के पर्याय हैं।' पूजा चार प्रकार की मानी गयी है- सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख, (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक। इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है, जिसे इन्द्र किया करता है। निक्षेपों की अपेक्षा भी पूजा के चार भेद किये गये हैं। समाधिशतक में निश्चय पूजा का भी उल्लेख किया गया है। वैदिक परंपरा में नित्य, नैमित्तिक और काम्य के रूप में तीन
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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