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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 पुद्गलभूत मूर्त धर्म रहित होने से अमूर्तिक है।13 (6) आत्मा के आयतनिक रूप के विषय में भी वेदान्त एवं जैन दर्शन में पर्याप्त अन्तर है। वेदान्ती जीव (आत्मा) को सर्वगत मानते हैं, जबकि जैन दार्शनिक उसे व्यवहार नय से स्वदेहप्रमाण और निश्चय नय से लोक प्रमाण मानते हैं। आचार्य विशुद्धसागर जी ने स्वरूप संबोधन के पंचम श्लोक 'स्वदेहप्रमितश्चायं' के परिशीलन में वेदान्तियों की आत्मविषयक सर्वगतता की ऐकान्तिक वेदान्ती मान्यता का खण्डन करते हुए ज्ञान की अपेक्षा उसकी सर्वगतता की मान्यता का समर्थन भी किया है। वे लिखते हैं- 'यह आत्मा व्यवहार नय की अपेक्षा लोक-अलोक को जानता है और शरीर में रहने पर भी निश्चय नय से अपने स्वरूप को जानता है। इस कारण ज्ञान की अपेक्षा तो व्यवहार नय से सर्वगत है, प्रदेशों की अपेक्षा सर्वगत नही है। पर जैसे- वेदान्ती आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा से व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं। ज्ञानात्मक दृष्टि से आत्मा सर्वगत है। इस विषय में भगवन् कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगय॥२४॥ ज्ञानतत्त्वाधिकार (परिशीलन पृष्ठ ६३) __ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की सर्वगतता का सर्वथा निषेध नहीं है, परन्तु ऐकान्तिक इसे नहीं माना जा सकता है। एक ही द्रव्य में दो विपरीत धर्म देखे जाते हैं। आचार्य श्री लिखते हैं- 'कुचला नामक औषधि विष है, सीधे सेवन की जाये तो मृत्यु का कारण है और उसे संस्कारित कर सेवन किया जाये तो वह रोग निवारण का साधन बन जाती है।14 (7) जैन दर्शन में जीव को स्वदेह प्रमाण माना गया है, किन्तु जीव की स्वदेहप्रमाणता भी ऐकान्तिक नहीं है। इस संदर्भ में आचार्यश्री स्वयं एक प्रश्न उठाकर स्पष्ट करते हैं'जीव स्वदेह प्रमाण किस निमित्त से है? समाधान है- 'असमुहदो' समुद्घात के न होने से अर्थात् वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक जो सात समुद्घात हैं, इनके होने पर जीव स्वदेहप्रमाण नहीं होता, असमुद्घात अवस्था में जीव स्वदेह प्रमाण रहता है। (8) अद्वैत वेदान्ती प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति ब्रह्म से मानते हैं तथा जीव मात्र को ब्रह्म का अंश स्वीकारते हैं। जैन दर्शन में प्रत्येक जीव (आत्मा) की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। आचार्यश्री विशुद्धसागर जी महाराज वेदान्तियों के मत का निराकरण करने के लिए कहते हैं कि-'एकमात्र जीवद्रव्य एक चैतन्यस्वभावी है, अन्य द्रव्यों से जीव द्रव्य का अत्यन्ताभाव है। प्रत्येक जीव का अन्य जीव की अपेक्षा से भी अत्यन्ताभाव है। प्रत्येक जीव स्वचतुष्टय में है, परचतुष्टय में नहीं है। न माता-पिता का अंश पुत्र है, जगत् के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव में ईश्वर का अंश भी नहीं है, जो ईश्वर का अंश स्वीकारता है, वह प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता के ज्ञान से अनभिज्ञ है।' आचार्यश्री तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि- "अहो! 'एक मांहि अनेक राजत' सूत्र का स्मरण करो। जब सिद्ध भगवान् एक में अनेक विराजते हैं तब भी वे शुद्ध सिद्ध
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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