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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 की गवाही भी ली जाती थी। तपस्वी, दानशील, कुलीन, सत्यवादी, पुत्रवान्, धर्मनिष्ठ तथा धनी व्यक्तियों का साक्ष्य उचित माना जाता था। स्त्री, बालक, वृद्ध, पाखण्डी, उन्मत्त (पागल), लूले एवं लँगड़े व्यक्ति गवाही के योग्य नहीं माने जाते थे। न्यायालयों में वादी-प्रतिवादी तथा गवाहों को शपथ लेनी होती थी- ब्राह्मण को सत्य, क्षत्रिय को वाहन या आयुध, वैश्य को गाय, बीज अथवा सुवर्ण तथा शूद्र को समस्त पापों से शपथ लेनी पड़ती थी। झूठी शपथ लेना निंदनीय भी था और अपराध भी। विवादों के निर्णय में साक्षियों का बहुत अधिक महत्त्व था। प्राचीन समय में दो प्रकार के साक्ष्य प्रचलित थे- मौखिक साक्ष्य और लिखित साक्ष्य। वादी और प्रतिवादी अपने-अपने कथनों को सिद्ध करने के लिए मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत करते थे। साक्ष्य देने से पूर्व साक्षी को सत्य बोलने की शपथ ग्रहण करनी होती थी। न्यायालय द्वारा बुलाये जाने पर साक्षी का न्यायालय में उपस्थित न होना दण्डनीय अपराध था, जिसके लिए अर्थ-दण्ड का प्रावधान था। मौखिक साक्ष्य की अपेक्षा लिखित साक्ष्य को अधिक प्रामाणिक माना जाता था। साक्ष्य में उभय पक्ष के हस्ताक्षर न होने पर उसे प्रमाणित नहीं माना जाता था। लिखित साक्ष्य चार वर्गों में विभाजित थे- स्वहस्तलिखित, अन्यहस्तलिखित, लौकिक तथा राजकीय मुद्रा से अंकिता लौकिक साक्ष्यों के अभाव में दिव्य साक्ष्यों की व्यवस्था की गयी थी। मृच्छकटिक में चार प्रकार के दिव्य साक्ष्यों अथवा परीक्षाओं का उल्लेख आया है- विष, जल, तुला और अग्नि के माध्यम से परीक्षा जो वर्णाश्रित थीं। ब्राह्मण, बालक, वृद्ध, अन्धे तथा रुग्ण व्यक्ति के लिए तुला परीक्षा, क्षत्रियों के लिए अग्नि, वैश्यों तथा शूद्रों के लिए विष परीक्षा लिये जाने की जानकारी प्राप्त होती है। हनुमन्नाटक में सीता की अग्नि-परीक्षा का उदाहरण है। अपने सतीत्व को प्रमाणित करने के लिए सीता अग्नि में कूद गयी थी, परन्तु अग्नि उसको जला नहीं सकी। प्राचीन भारत में यद्यपि न्याय-व्यवस्था अत्यधिक सरल, सुव्यवस्थित एवं पक्षपातरहित थी तथापि चौथी शताब्दी ई. तक आते-आते उसमें पक्षपात एवं भ्रष्टाचार प्रारंभ हो गया था। मृच्छकटिक में विवरण आया है कि राजा का साला शकार, चारुदत्त पर न्यायालय में वसन्तसेना की हत्या करने का अभियोग प्रस्तुत करते समय, न्यायाधीश को राजा का भय दिखाकर प्रभावित करने का प्रयास करता है। पादताडितक भाण से ज्ञात होता है कि उस समय न्यायव्यवस्था काफी पंगु हो गई थी उसमें भ्रष्टाचार तथा पक्षपात व्याप्त हो गया था। इस संबन्ध में एक उदाहरण मिलता है कि मदयन्ती नामक एक वेश्या, उपगुप्त से आधा पण धन लेने के लिए न्यायालय की शरण में गयी थी। ये विवरण भी मिलते हैं कि मुकदमा सुनते समय प्राविवाक विष्णुदास ऊँघता रहता था और न्यायालय के अधिकारी, पुस्तपाल, कायस्थ, काष्ठक और महत्तर रिश्वत मांगते थे। यह सब भ्रष्टाचार और अव्यवस्था देखकर उपगुप्त ने सोचा कि रिश्वत देने से अच्छा तो यही है कि वेश्या को ही धन दे दिया जाये। 'मत्तविलासप्रहसन' से भी यही संकेत मिलता है कि न्यायालय के कर्मचारी रिश्वत लेकर न्याय के विपरीत निर्णय दे देते थे।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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