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अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011
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कथन करना चाहिए। यदि वह द्रव्य सामान्य को समझना चाहता है तो उसके लिए सब निक्षेपों का कथन करना चाहिए, क्योंकि विशेष धर्मों का निर्णय हुए बिना सामान्य धर्म का निर्णय नहीं हो सकता। दूसरे और तीसरे प्रकार के श्रोता यदि सन्देह में हों तो उनका सन्देह दूर करने के लिए सब निक्षेपों का कथना करना चाहिए और यदि उन्होंने विपरीत समझा हो तो भी प्रकृत अर्थ के निर्णय के लिए सब निक्षेपों का कथना करना चाहिए। " उपयोग का वैशिष्ट्य
जैनदर्शन में प्रमाण, नय और निक्षेप का अद्वितीय स्थान है। इनका सही प्रयोग करने से सन्मार्ग प्रशस्त होता है। निक्षेपों को छोड़कर वर्णन किया गया सिद्धान्त सम्भव है वक्ता और श्रोता दोनों को कुमार्ग में ले जावे। तिलोयपण्णत्ति में आचार्य यतिवृषभ कहते हैं
'जो ण पमाणणयेहिं णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्यं
तस्साजुत्तं जुतं जुतंमजुत्तं च पडिहादि ॥ ८२ ॥ '
अर्थ- जो प्रमाण, नय और निक्षेप से अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है, उसको
अयुक्त पदार्थ युक्त, और शुक्त पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है।
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सर्वार्थसिद्धिकार ने भाव निक्षेप का अन्तर्भाव पर्यायार्थिक नय में और शेष तीन का अन्तर्भाव द्रव्यार्थिक नय में किया है। इसी का अनुसरण धवला जी, सन्मति तर्क, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय, श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में किया गया है।
निक्षेप का अन्तर्भाव विविध नयाँ में हो जाने से इसका कोई भी वैशिष्ट्य सामान्य दृष्टि से नजर नहीं आता है। तथापि निक्षेप का निर्देश आगम में क्यों किया गया। यह प्रकरण राजवार्तिककार द्वारा भली प्रकार स्पष्ट किया है। प्रश्न- द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में अन्तर्भाव हो जाने के कारण इन नामादि निक्षेपों का पृथक् कथन करने से पुनरुक्ति होती है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयाँ से ही सभी नयों के वक्तव्य प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं पर जो मन्दबुद्धि शिष्य हैं, उनके लिए पृथक् नय और निक्षेप का कथन करना चाहिए। अतः विशेष ज्ञान कराने के कारण नामादि निक्षेपों का कथन पुनरुक्त नहीं है। 3
भेददृष्टि से विचार करने पर संज्ञा, लक्षण और उद्देश्य कथन की अपेक्षा प्रमाण, नय और निक्षेप में भेद दिखाई पड़ता है। तिलोयपण्णत्तिकार लिखते हैं
'णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो । णिक्खेओ वि उवाओ जुत्तीए अत्यपडिगहणं॥८३॥
अर्थ- सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। निक्षेप उपाय स्वरूप है युक्ति से अर्थ का प्रतिग्रहण करना चाहिए।" णयचक्को में भी लिखा है
'वत्थु पमाणविसयं णयविसयं हवड़ वत्थु एकसं
जं दोहि णिण्णयट्ठ तं णिक्खेवे हवइ विसयं ॥ १७१ ॥'
अर्थ- सम्पूर्ण वस्तु प्रमाण का विषय है और उसका एक अंश नय का विषय