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________________ 58 तत्त्वार्थवार्तिक में वर्णित अणुव्रत और महाव्रत से मन, वचन, काय से निवृत्त अहिंसाणुव्रती कहलाता है। स्नेह, द्वेष और मोह के आवेश से बोले जाने वाले असत्य का त्यागी सत्याणुव्रती होता है। अन्य को पीड़ाकारक और राजभय आदि से परित्यक्त जो अदत्त है, उस अदत्त से निवृत्ति अचौर्याणुव्रत है। उपात्त (दूसरे के द्वारा गृहीत) अनुपात्त (दूसरे के द्वार अनुगृहीत कुमार, कन्या आदि से परस्त्री से विरक्त होना ब्रह्मचर्याणुव्रत है।) धन धान्य क्षेत्रादि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का स्वेच्छा से परिमाण कर लेना परिग्रह परिमाणुव्रत है। अणुव्रती श्रावक के इन पाँच व्रतों के अतिरिक्त दिगविरति, देशविरति, अनर्थ-दण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोवपास, उपभोग परिभोग परिमाण और अतिथि संविभागवत भी होते हैं। आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि 'ततो बहिर्महाव्रत प्रसिद्धि' अर्थात् अहिंसाणुव्रती परिमित दिशा की अवधि के बाहर मन, वचन, काय योग और कृत कारित तथा अनुमोदन आदि सर्व विकल्पों के द्वारा हिंसादि सर्व सावध से निवृत्त हो जाता है, अतः दिग्विरति व्रतधारी के दिग्विरति बाहर महाव्रतत्त्व जानना चाहिये। इसी प्रकार देशविरति के भी महाव्रतत्त्व होता है और सामायिक में अणु और स्थूल हिंसा आदि से निवृत्त होने के कारण इसमें भी महाव्रतपना समझना चाहिये परन्तु यह महाव्रतपना अगारी के उपाचार से कहा है। वार्तिककार अकलंकदेव ने अनर्थदण्ड के विषय में कहा है कि मध्य में अनर्थदण्ड का ग्रहण पूर्वोत्तर अतिरेक के आनर्थ के ज्ञापनार्थ है। पूर्व में कहे गये दिग्व्रत और देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग परिभोग परिमाण व्रत से अवधृत मर्यादा में भी निष्प्रयोजन गमन आदि तथा मर्यादित विषयों का भी सेवन आदि नहीं करना चाहिये। इस प्रकार अतिरिक्त निर्वृत्ति की सूचना देने के लिये मध्य में अनर्थदण्डवचन को ग्रहण किया गया। दिग्देशानर्थविरति इत्यादि सूत्र में जो 'सम्पन्न' शब्द आया है उस सम्बन्ध में पूज्यपाद एवं अकलंक ने व्याख्यायित नहीं किया परन्तु विद्यानन्द श्लोकवार्तिक में कहते हैं कि” सम्पन्न शब्द साभिप्राय है जैसे कोई बड़ा श्रीमान् (धनाढ्य) निज सम्पत्ति से अपने को भाग्यशाली मानता रहता है, मेरे कभी लक्ष्मी का वियोग नहीं होवे ऐसी सम्पन्न बने रहने की अनुक्षण भावना रहती है। उसी प्रकार गृहस्थ उन व्रतों से अपने को महान सम्पत्तिशाली बने रहने का अनुभव करता रहता है। तत्त्वार्थवार्तिक में अणुव्रतीश्रावक का वैशिष्ट्य बताते हुए कहा है कि दिग्देशानर्थ इत्यादि सूत्र में ही सल्लेखना को जोड़ा जा सकता था परन्तु उस सूत्र में सल्लेखना इसलिये नहीं जोड़ा क्योकि घर का त्याग नहीं करने वाले के लिये दिग्विरति आदि सप्त प्रकार के शील का उपदेश है और घर का त्याग कर देने पर उस गृहस्थ के श्रावकव्रत रूप से ही सल्लेखना होती है। अत: इस वैशिष्टय के साथ यह भी बताना इष्ट था कि सल्लेखना
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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