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________________ 46 मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त आसनों में खड़े मिले, उन्हें भी एक कोलोनस तथा दूसरा मंडनिस- मण्डल (अन्य ग्रंथों का दंड मिस-दण्डायन) भी थे। कोलोनस ने अतीत सतयुग का सामान्य विवरण दिया, किन्तु आगे बढ़ने से इंकार कर दिया और कहा कि वह तब तक बात नहीं करेंगे, जब तक यवन अतिथि अपने को निर्वस्त्र नहीं कर देता और उसके साथ उसकी प्रस्तर शिला पर नहीं लेटता। मंडनिस ने यवन अतिथि की जिज्ञासा को शांत करने का अधिक प्रयत्न किया। उन दोनों ने यवन और भारतीय दार्शनिकों के विचारों पर बातचीत की। ओनिसिक्रिटस ने पिथागोरस, सोक्रेटीज और डायोजिनीज के यवन दर्शन के विषय में जो बताया, उसकी तो मंडनिस ने सराहना की, परन्तु उसने यवनों की इसके लिए आलोचना की कि वे प्रकृति की अपेक्षा बाह्याडम्बरों को अधिक मानते हैं और कपड़े पहनना छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रकार दश दार्शनिकों से सिकन्दर की भेंट हुई थी। सिकन्दर ने उनसे बड़े पैने प्रश्न किए और उन्होंने उनके इतने सुन्दर और संतोषजनक उत्तर दिए कि उसने प्रसन्न होकर उनका यथोचित सम्मान किया। कुछ श्रमणों के साथ स्त्रियाँ भी दर्शन का अध्ययन करती थीं, किन्तु उन्हें कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था निर्वस्त्र होने पर बल देना दिगम्बर जैन साधुओं की विशेषता है, उन्हें बौद्ध मानना भ्रामक है। ये ब्राह्मण धर्मी भी नहीं हो सकते हैं। चन्द्रगुप्त का धर्म चन्द्रगुप्त का धर्म कौन सा था, इस विषय में समस्त जैन साक्ष्य एकमत है कि वह जैन था। ब्राह्मण ग्रंथों में उसे वृषल, दासी पुत्र आदि कहकर उसे निन्दित सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, उसका यही कारण है कि वह जैन था। कहा जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चन्द्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवणवेलगोला चले गए और सच्चे जैन भिक्षु की भांति निराहार समाधिस्थ होकर प्राण परित्याग किया। 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं। दिगम्बर जैन साहित्य में इस विषय का सबसे प्राचीन उल्लेख हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (कथांक 131) में पाया जाता है। इस ग्रंथ की रचना शक संवत् 853 में हुई थी। इसमें बतलाया है कि पोण्ड्रवर्द्धन नामक सुन्दर देश में पहले 'कोटिमत' तथा वर्तमान में 'देवकोट्ट' नगर है। इसमें पद्मरथ नामक राजा राज्य करता था। इस राजा का सोमशर्मा नामाक ब्रह्मण था। इसकी सोमश्री नामक स्त्री से भद्रबाहु नामक पुत्र हुआ। एक बार श्रुतकेवली गोवर्द्धन कोटिनगर पहुंचे। उन्होंने वहां चौदह गोल पत्थरों को एक के ऊपर एक रखे हुए भद्रबाहु को देखा। उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान से जानकर उस बालक को उसके पिता से ले लिया। उनके समीप रहकर भद्रबाहु नाना शास्त्रों के ज्ञाता बन गये। एक बार वे अपने पिता से मिलकर पुनः गोवर्द्धन स्वामि के पास आकर प्रव्रजित हो गए। अनन्तर थोड़े ही काल में वे श्रुत के परगामी हो गए। एक बार वे उज्जयिनी के समीप शिप्रा के तट पर एक उपवन में पहुंचे। उस समय उस नगर में चन्द्रगुप्त नामक राजा था। सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होकर वह महान् श्रावक हो गया। एक बार भद्रबाहु भिक्षार्थ एक घर
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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