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________________ कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण मूर्तिक है। मूर्तिक कर्मों का अमूर्तिक जीव के साथ बन्ध कैसे संभव है? समाधानतत्त्वार्थसार में आ. श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि अपेक्षा से आत्मा भी मूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा का द्रव्यकर्मों के साथ धाराप्रवाहीरूप से सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। मूर्तिक द्रव्यकमों के साथ एक क्षेत्रावगाही अनादि संबन्ध होने से आत्मा भी कथचित् मूर्तिक है। अतः कथंचित् मूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध होना संभव है जैसे सोना-चांदी गालाने पर मिलकर एकरूप हो जाते हैं। द्रव्यसंग्रह में आ. श्री 12 - नेमिचन्द्रजी भी कहते है कि जीव में यद्यपि पांच वर्ण, 5 रस, दो गंध और आठ स्पर्श नहीं होते। अतः निश्चय से वह अमूर्तिक ही है, परन्तु कर्मों से बँधा होने के कारण व्यवहार से वह मूर्तिक है। अतः कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बंध होने में कोई बाधा नहीं है। देखिए - "घी मूलतः दूध में और सोना मूलत: पाषाण में मिलता है। इन्हीं की तरह जीव भी मूलतः द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावरूप संश्लेष संबन्ध को प्राप्त अपने अमूर्तिक स्वभाव से च्युत हुआ ही प्राप्त होता है अतः वह मूलतः अमूर्तिक न होकर कथच मूर्तिक है। ऐसा मान लेने पर संसार दशा में अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्म से बन्ध होने में कोई विरोध नहीं आता।" - कर्म सिद्धान्त - श्री जिनेन्द्रवर्णी प्रश्न / शंका- इन पुद्गल कर्मों में एसी क्या शक्ति है, जो चेतनस्वभावी आत्मा को विभावभावों में परिणमाती है? समाधान- जैसे पीने वाले को शराब पागल / मोहित कर देती है। शराब के नशे में मदहोश होकर शराबी सब कुछ भूल जाता है वैसे ही जड़कर्म भी जीव को विमोहित कर अपने स्वभाव से च्युत कर देते हैं अर्थात् विभावभावों में परिणत करा देते हैं। इस विषय में श्री टोडरमलजी कहते हैं जैसे किसी पुरुष के सिर पर मंत्रित भूलडाल दी जाती है तो वह उसके निमित्त से अपने को भूलकर विपरीत चेष्टा करता है; क्योंकि मंत्र के निमित्त से धूल में ऐसी शक्ति आ जाती है कि सयाना पुरुष भी विपरीत परिणमन करने लगता है। इसी प्रकार आत्मप्रदेशों में रागादि के निमित्त से बंधे हुए जड़कर्मो के प्रभाव से आत्मा अपने को भूलकर नानाविध विपरीत भावों से परिणमन करती है। फलतः जड़ कर्मों में ऐसी शक्ति आ जाती है जो चैतन्य पुरुष को विपरीत परिणमाती है। चेतनस्वभावी जीव के स्वभाव का पराभव कर यह जड़ कर्म ही मनुष्य आदि पर्यायों में उत्पन्न कराता है । " श्री पद्मपुराण में भी कहा है कि बलों में कर्मकृत बल ही प्रबल है। 'बलानां हि समस्तानां वलं कर्मकृतं परम्" तथा बड़े खेद की बात है कि ये संसारी प्राणी इन कर्मों के द्वारा चतुर्गति में कैसे नचाये जाते हैं? | संसारी जीव कर्माधीन है वस्तुतः संसार दशा में सभी जीव कर्माधीन होते हैं। जैनदर्शनानुसार कर्म करने में जीव स्वतंत्र है, परन्तु कर्मों का फल भोगने में वह कर्माधीन होता है- 'स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते' "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभम्" तथा "स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्"- भावना द्वात्रिंशिका |
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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