SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मसिद्धान्त के कतिपय तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण कर्म है। यह " योगक्रिया" कहलाती है, जो परिस्पन्द रूप से प्रतिसमय होती है। मन-वचन-काय ये तीनों उसके द्वारा हैं। इसे जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं। इसी के निमित्त से जो पुद्गल-स्कन्ध आकर ज्ञानावरण आदि भाव को प्राप्त होते हैं, वे 'द्रव्यकर्म' कहे जाते हैं। भावकर्म (जीवकर्म) को प्रायः सभी स्वीकार करते हैं, परन्तु भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कन्ध जीव- प्रदेशों में प्रवेश कर उसके साथ बंधते हैं'- यह तथ्य केवल जैनागम ही बताता है। यही सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध अजीवकर्म या दव्यकर्म' कहलाते हैं। ये रूप-रस-गंध-स्पर्श के धारी मूर्तिक होते हैं। जैसे-जैसे कर्म यह जीव करता है, वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बंधते हैं और कुछ काल बाद परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत/ बैंक जाते हैं इसे "कर्मों का फल देना" कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण ये कर्मरूप पुद्गल - स्कन्ध दिखाई नहीं देते।' जीव को जो परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिन के द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें "कर्म" कहते हैं। अथवा जीव के द्वारा मिथ्या दर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं उपार्जित होते है वे "कर्म" हैं।" सिद्धांताचार्य पं. श्री कैलाशचन्द जी ने लिखा है- "साधारणतः जो किया जाता है, वह 'कर्म' है। जैसे - खाना-पीना, चलना-फिरना, सोचना-विचारना, • हँसना-खेलना आदि दूसरे धर्म, रागद्वेष से युक्त जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते है, और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी वे संस्कार को स्थायी मानते हैं, जबकि जैनदर्शनानुसार कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है, अपितु वस्तुभूत पदार्थ हैं। रागी द्वेषी जीव की प्रत्येक क्रिया(मानसिक-वाचिक-कायिक) के साथ एक द्रव्य जीव में आता है और रागद्वेष भावों का निमित्त पाकर जीव से बंध जाता है, वही 'कर्म' है, जो आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है। 10 - प्रवचनसार में आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है- 'रागद्वेष से युक्त आत्मा जब अच्छे या बुरे कर्मों में लगती है तब कर्मरूपी रज झानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करती है। इस तरह कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीव के साथ बंधता है। यही द्रव्यकर्म है। कर्मसिद्धान्त का समस्त वर्णन द्रव्यकर्मप्रधान है। पुद्गलिपिंड को 'द्रव्यकर्म " और उसमें रहने वाली फलदान शक्ति को "भावकर्म" कहते हैं। जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा के साथ बंधती है, वे "कर्म" कहलाती है। - (अनादिकालीन कर्मों के वशीभूत होकर) कर्मवद्ध संसारी जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन (अशुद्धभाव ) - रागद्वेष मोहभाव करता है। जिससे पुद्गल परमाणु अपने आप कर्मरूप परिवर्तित होकर तत्काल जीव के साथ संबद्ध हो जाते हैं बंधने के पूर्व इन्हें 'कार्मण वर्गणा' कहते हैं और बंधने पर वे 'कर्म' कहे जाते हैं। पुद्गलजातिय 23 वर्गणाओं में से केवल पांच वर्गणाएँ ही ग्रहण के योग्य हैं(1) आहारवर्गणा (2) भाषा वर्गणा (3) मनोवर्गणा (4) तैजस वर्गणा और (5) कार्मण-वर्गणा । कार्मण-वर्गणा से कर्म और शेष चार वर्गणाओं से 'नोकर्म' बनते हैं। जीव
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy