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________________ पुस्तक समीक्षा - आलोक कुमार जैन पुस्तक- 'पाइय गज्ज-पज्जसंगहो' लेखक- डॉ. जिनेन्द्र जैन, लाडनूं, प्रकाशक- जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध-संस्थान, श्री पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.), प्रथम संस्करण: 2011, कुल पृष्ठ-128 भगवान् महावीर ने 2537 वर्ष पूर्व अपनी दिव्य-देशना में जिस भाषा का आश्रय लिया था उसी भाषा में गुंफित कथाओं से सम्बन्धित साहित्य का गद्य-पद्य संग्रह जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध संस्थान, जबलपुर ने प्रकाशन करके आज पुनः जन-जन में प्राकृत को अंगीकार करने के लिए प्रस्तुत किया है। प्राकृत जनसामान्य की भाषा होने से ही भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन प्राकृत भाषा में देकर जनकल्याण किया। डॉ. जिनेन्द्र जैन प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के मूर्धन्य विद्वान् हैं और इन भाषाओं पर अच्छा अधिकार है। पाइय गज्ज-पज्जसंगहो में संकलित गद्य-पद्य कथायें अत्यधिक प्रेरित करने वाली हैं। इन कथाओं में प्रयुक्त प्राकृत भाषा सरल एवं मधुर है। इससे प्राकृत के सामान्य प्रयोग करने में और समझने में सामान्य व्यक्ति को सुगमता रहेगी। __ जिन कथाओं को इसमें संकलित किया गया है उनमें जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों को कथा के साथ प्रस्तुत किया गया है जिससे जनसामान्य सिद्धान्तों को भी समझ लेंगे। जैसेलोभ का अन्त नहीं, जैसा कर्म करोगे वैसा फल अवश्य मिलता है, भोलेपन के साथ वाक्चातुर्य भी होना चाहिए, साहस, दृढ़ता, भक्ति, धैर्य, संतोष आदि मूल्यों से परिचय, जैसा गुरु वैसा शिष्य, संयम का महत्त्व, अपने ज्ञान/योग्यता पर घमण्ड नहीं करना, संसार की असारता को व्यक्त करने वाली मधुबिन्दु नामक कथा, शिष्य की विनय और मर्यादा आदि गुणों से परिचय , किसी भी वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता पर निर्भर है और भारतीय परम्परा के आदर्श चरित्र को अगडदत्त की कथा में प्रस्तुत किया गया है एवं सुभाषितावली में नैतिक एवं जीवनमूल्यों को प्ररूपित किया गया है। एक विशेषता यह है कि इसमें सम्पादक ने कठिन शब्दों के अर्थ तथा वस्तुनिष्ठ, लघु और दीर्घ प्रश्न कथा के बाद उल्लिखित किए हैं जिससे उनके विषय ज्ञान में और दृढता आयेगी। दूसरी विशेषता यह है कि कथा के मूल पाठ के बाद उसका हिन्दी अनुवाद दिया है जिससे कथा को प्राकृत भाषा में भलीभांति समझा जा सकता है। पूर्व में भूमिका के रूप में प्राकृत भाषा का सामान्य परिचय और भेद, भारतीय भाषाओं का परिचय एवं उद्गम आदि मौलिक विषय प्रस्तुत किया गया है जिससे प्राकृत भाषा को समझना और भी सरल हो गया है। एक प्रकार से यह कृति अत्यन्त समाजोपयोगी है। इसके लिये हम सब डॉ. जिनेन्द्र जैन एवं प्रकाशक के परम आभारी हैं। -उपनिदेशक वीर सेवा मंदिर, नई दिल्ली-२
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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