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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 71 में तो मात्र पंचपरमेष्ठी ही पूज्य हैं। जिनदेव के भक्त, विशेष भक्त सम्माननीय हैं। सम्माननीय को पूज्य मानना अभिप्राय के अनुसार अनंत संसार का कारण हो जाता है। यह दोष-अतिचार की श्रेणी में भी नहीं आता गृहीत मिध्यात्व और देवमूढ़ता का प्रभाव क्षेत्र एक समान नहीं है। जो विद्वान्, जिनदीक्षाधारी, आर्यिका गणिनी और संस्थाएँ गृहीत मिध्यात्व का पोषण और प्रचार कर रही हैं वे जिनेन्द्रभक्त कैसे हो सकती हैं? गृहीत मिथ्यात्व के पोषण और सिद्धि के लिये श्री त्रिलोकसारजी ग्रंथ और उसकी टीका को आधार बनाना जिनशासन को समूल ध्वस्त करने जैसा जघन्य अपराध है। सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य कृत श्री त्रिलोकसारजी ग्रंथ दि. जैन मूलाम्नाय का वीतरागता द्योतक ग्रंथ है। इसमें जिनेन्द्रदेव और जिनालयों की वंदना की गई है। देवगण भी ऐसा ही करते हैं। किसी रागी देवी-देवता या असंयमी की वंदना करने की सिद्धि कहीं नहीं होती। यक्ष-यक्षिणी क्षेत्रपाल एवं लक्ष्मी, सरस्वती की मूर्तियों की पूजा जिनशासन के अनुरूप नहीं है, प्रतिगामी है और अनंत संसारवर्द्धक है। सुधीजन मार्गदर्शन करें। बी-369, ओ. पी. एम. कालोनी, अमलाई -484117 जिला - शहडोल (म.प्र.) मनुष्य भव की दुर्लभता जो भविओ मणुअभवं लहिउं धम्मण्यमायमायरड् । सो लडं चिंतामणिरवणं रवणायरे गमड़। अर्थात् जो भव्य जीव मनुष्य भव को प्राप्त करके धर्म के आचरण में प्रमाद करता है वह प्राप्त किए गए चिन्तामणि रत्न को समुद्र में खो देता है। जिस प्रकार समुद्र में गिरा रत्न पुनः मिलना दुर्लभ है उसी प्रकार एकबार मनुष्य पर्याय को व्यर्थ में ही विषय कषायों में खो दिया तो फिर पुनः मनुष्य भव प्राप्त करना दुर्लभ है। जैसे चिन्तमणि रत्न से मात्र चिन्तन करने से मनचाहा पदार्थ प्राप्त हो जाता है वैसे ही मनुष्य पर्याय से मोक्षफल की प्राप्ति सम्भव है, इसलिए मनुष्य पर्याय को आचार्यों ने दुर्लभ कहा है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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