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________________ अनेकान्त 64/1 जनवरी-मार्च 2011 अस्वाध्यायकाल में अध्ययन मन्दबुद्धि के श्रमणों और आर्यिका समूह के लिए निषिद्ध हैं। अन्य मुनीश्वरों को भी द्रव्य-क्षेत्र - काल आदि की शुद्धि के बिना उपर्युक्त सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध हैं। किन्तु इन सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त आराधनानिर्युक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान, आवश्यक तथा धर्मकथा संबन्धी ग्रंथों को एवं ऐसे ही अन्यान्य ग्रंथों को आर्यिका आदि सभी अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकती हैं। 48 वंदना- विनय संबन्धी व्यवहार यह पहले ही कहा गया है कि शास्त्रों के अनुसार सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी नव दीक्षित भ्रमण पूज्य और ज्येष्ठ माना गया है। अतः स्वाभाविक है कि आर्यिकायें श्रमण के प्रति अपना विनय प्रकट करती हैं। आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों की वंदना विधि के विषय में कहा है कि आर्थिकाओं को आचार्य की वंदना पाँच हाथ दूर से उपाध्याय की वंदना छह हाथ दूर से एवं साधु की वंदना सात हाथ दूर से गवासन पूर्वक बैठकर ही करनी चाहिए। 25 यहाँ सूरि (आचार्य), अध्यापक (उपाध्याय) एवं साधु शब्द से यह भी सूचित होता है कि आचार्य से पाँच हाथ दूर से ही आलोचना एवं वंदना करना चाहिए। उपाध्याय से छह हाथ दूर बैठकर अध्ययन करना चाहिए एवं सात हाथ दूर से साधु की वंदना, स्तुति आदि कार्य करना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं। " मोक्षपाहुड (गाथा 12) की टीका के अनुसार श्रमण और आर्यिका के बीच परस्पर वंदना उपयुक्त तो नहीं है, किन्तु यदि आर्यिकायें वंदना करें तो भ्रमण को उनके लिए "समाधिरस्तु " या "कर्मक्षयोऽस्तु" कहना चाहिए। श्रावक जब इनकी वंदना करता है तो उन्हें सादर "वन्दामि " शब्द बोलता है। आर्यिका और श्रमण संघ: परस्पर संबन्धों की मर्यादा आचार विषयक जैन आगम साहित्य में श्रमण संघ को निर्दोष एवं सदा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अनेक दृष्टियों से स्त्रियों के संसर्ग से, चाहे वह आर्यिका भले ही हो, दूर रहने का विधान किया है। यही कारण है कि श्रमण संघ आरंभ से अर्थात् प्राचीन काल से आज तक बिना किसी बाधा या अपवाद के अपनी अक्षुण्णता बनाये हुए है। श्रमणों और आर्यिकाओं का संबन्ध ( परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकायें एक साथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन, शंका-समाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं अकेले श्रमण और आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा - वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम की विराधना, इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों से दूषित होगा। 50 अध्ययन या शंका-समाधान आदि धार्मिक कार्य के लिए आर्यिकायें या स्त्रियाँ यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है ।" एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि कोई आर्यिका अपनी पुस्तक अर्थात् आर्यिका गणिनी के साथ उसे
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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