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________________ 56 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 समलंकृत किया गया है। मन्दिर के इसी भाग में गज लक्ष्मी, शिव स्थानक एवं अन्धकासुर वध की मूर्तियाँ भी हैं, वहीं मुख्य रथिकाओं में अनेक कायोत्सर्ग मुद्रा की जैन मूर्तियाँ हैं। इसी मन्दिर के परिसर में उत्तर की ओर यहाँ की विख्यात व्यापारिक फर्म सेठ विनोदीरामबालचंद परिवार द्वारा स्थापित सेठों की चाँदी की एक प्राचीन कलायुक्त तीर्थकर वेदी है। इसे 20वीं सदी के आरम्भ में इस परिवार के सेठ माणिक चंद सेठी, लालचंद सेठी और सेठ नेमिचंद सेठी ने बनवाकर जैन शास्त्रोक्त विधिअनुसार इसमें तीर्थकर पार्श्वनाथ सहित तीर्थकर चन्द्राप्रभू आदि की श्वेतपाषाण व धातु मूर्तियाँ स्थापित करवाई थीं। इनमें तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति के पादपीठ पर एक अभिलेख संवत् 1055 का पठन में आता है। इस मूर्ति के शीश पर सप्तसर्प फणावलियाँ हैं तथा यह पद्मासन मुद्रा में प्रतिष्ठित है जबकि चन्द्रप्रभ स्वामी की धातुमूर्ति के शीश पर केशबन्धन तथा वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन उनके तप भावों को प्रकट करता है। दोनों मूर्तियाँ आज भी सुपूजित हैं। प्रतीत होता है ये मूर्तियाँ सेठी परिवार द्वारा अन्यत्र स्थान से लाकर यहाँ प्रतिष्ठित की गई होंगी। उक्त परिवार के वर्तमान वंशज विनोद भवन झालरापाटन के सुरेन्द्र कुमार सेठी तथा निखिलेश सेठी बताते हैं कि चाँदी की इस सुन्दर वेदी में जैन तीर्थंकरों की तपसाधनाओं को सूक्ष्म अंकनों से की गई कलात्मकता से जिस प्रकार निर्मित किया गया है वह देखने योग्य है जिसे जैन मूर्तिकला परम्परा में आधार बनाया जा सकता है। मुख्यालय झालावाड़ के निकट स्थित है प्राचीन जलदुर्ग गागरोन! इस दुर्ग से अनेक ऐसी जैन मूर्तियाँ प्रकाश में आई हैं जिन पर अभी तक किसी उत्खननकर्ता का ध्यान ही नहीं गया। वर्ष 2008 में स्वयं लेखक अपने संस्कृति रुचिवान मित्र निखिलेश सेठी (विनोद भवन, झालरापाटन) के साथ उक्त दुर्ग में खोजबीन के दौरान गया था। दुर्ग की प्राचीन भैरवपोल के निकट परकोटे के एक कंगूरे के मध्य हमें तीर्थकर महावीर स्वामी की लगी मूर्ति मिली। यह मूर्ति डेढ़ फीट ऊँची और एक फीट चौड़े पीतवर्ण पाषाण खण्ड पर निर्मित है जो पूर्णतया ध्यानावस्था में है। मूर्ति के गले की सलवटें एवं कन्धों को छूते दोनों कान अज्ञात शिल्पी की दार्शनिक चेतना के प्रमाण हैं। मूर्ति के शीश पर केशों का अंकन कलात्मकता लिए उकेरा गया है जबकि दोनों हाथ पद्मासन अवस्था में हैं। पैरों के नीचे सिंह का लांछन है। इस मूर्ति का काल 10वीं सदी बताया जाता है। दुर्ग के रंगमहल में एक अन्य जैन मूर्ति तीर्थकर आदिनाथ की है जो पद्मासन मुद्रा में है। 25सेमी. ऊँची और 22 सेमी. चौड़े माप की यह मूर्ति सिलेटिया पत्थर पर बनी है। ध्यानावस्था की इस मूर्ति के पैरों के नीचे लांछन रूप में वृषभ है तथा मूर्ति उठाने की भार साधक मुद्रा में नीचे की ओर दो सेवको की मूर्तियाँ हैं। झालावाड़-झालरापाटन मार्ग के मध्य स्थित गिन्दौर गाँव में जैन दिगम्बर मत की एक नसियां है। इसमें मूलनायक तीर्थकर पार्श्वनाथ की सुन्दर और कलात्मक मूर्ति दृष्टव्य है। इसकी ऊँचाई 2 फीट 8 इंच है। मूलनायक के मस्तक पर सप्तसर्प फणावलियाँ हैं जिनकी आवरण कला का सूक्ष्म अंकन कला की दृष्टि से देखने योग्य है। मूलनायक के परिकर में छत्र, गज, मालाधारी देव एवं चमरेन्द्र का कलात्मक अंकन है। मूर्ति के दोनों ओर सप्त
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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