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________________ 27 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 रूपस्कन्ध अचेतन है। अतः सिद्ध है कि श्वासोच्छ्वास रूप कार्य का जो कर्ता है, वही आत्मा है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होने से, उसका अभाव मानना नितान्त गलत है क्योंकि इन्द्रिय निरपेक्ष आत्मजन्य केवलज्ञान रूप सकल प्रत्यक्ष के द्वारा शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है एवं देशप्रत्यक्ष अवधि और मनः पर्यय ज्ञान के द्वारा कर्म-नोकर्म संयुक्त अशुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष न होने से उसका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष जैनदर्शन में परोक्ष प्रमाण माना गया है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि अग्राहक निमित्त कारणों से, धूप से अनुमित अग्नि की तरह ग्राह्य होते हैं। इन्द्रियाँ अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर स्मृति उत्पन्न होती है। जिस प्रकार खिड़की के नष्ट हो जाने पर उसके द्वारा देखने वाला विद्यमान रहता है उसी प्रकार इन्द्रियों से देखने वाले आत्मा की सत्ता रहती है। भट्ट अकलंकदेव ने इन्द्रिय संकलनात्मक ज्ञान द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि इन्द्रिय और उनसे उत्पन्न ज्ञानों में 'जो मैं देखता हूँ, वही मैं चखता हूँ' एकत्व विषयक फल नहीं पाया जाता है। लेकिन इस प्रकार का एकत्व विषयक ज्ञान होता है। अत: इन्द्रियों द्वारा जाने गये विषयों एवं ज्ञानों में एकसूत्रता देखने वाले ग्रहीता के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। इन्द्रियों से ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि वे अचेतन एवं क्षणिक हैं। अत: इन्द्रियों से भिन्न सकल ज्ञान और विषय को ग्रहण करने वाला कोई होना चाहिए और जो ऐसा है वही आत्मा है। आ. मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में भी संकलनात्मक ज्ञान के द्वारा आत्मा की सत्ता को सिद्ध किया है। ३. आचार्य जिनभद्रगणि श्रमण- आचार्य जिनभद्रगणि ने स्मरणादि विज्ञान रूप गुणों के आधार पर आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष होता है क्योंकि उसके स्मरणादि विज्ञान रूप गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। जिन गुणों के गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है उसका भी प्रत्यक्ष होता है। जैसे घट रूप गुण के रूपादि गुणों के प्रत्यक्ष अनुभव होने से घट का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, उसी प्रकार आत्मा के गुण ज्ञानादि का प्रत्यक्ष अनुभव होने से आत्मा का भी प्रत्यक्ष अनुभव होना मानना चाहिए। यदि गुण और गुणी को भिन्न मानने वाले ज्ञान गुण से आत्मा रूप गुणी की सत्ता स्वीकार न करें तो रूपादि गुणों के आधार घटादि पदार्थों की भी सत्ता नहीं माननी चाहिए। अतः स्मरणादि गुणों के द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। जिनभद्रगणि ने आत्मा की सिद्धि गुणों के आधार के अलावा इन्द्रियों के अधिष्ठाता के रूप में शरीर के कर्ता के रूप में, अदाता, भोक्ता, देहादि संघातों के स्वामी के रूप में आत्मास्तित्व की सिद्धि की है। ४. आचार्य हरिभद्र- शास्त्रवार्तासमुच्चय के कर्ता ने भूत चैतन्यवाद का खण्डन करके आत्मा की सत्ता को सिद्ध करते हुए कहा है कि आत्मा चेतना का आधार है, इसलिए सदा स्थित शील तत्त्व के रूप में उसकी सत्ता सिद्ध होती हैं और यही आत्म तत्त्व परलोक जाता है इसलिए परलोकी के रूप में आत्मा की सत्ता सिद्ध है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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