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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही विराजे हैं, इसलिए आत्मा ही मेरा परम ध्यान है, आत्मा ही परम ध्येय है, आत्मा ही परम उपादेय जो निश्चय ध्येय है, वही मेरा आत्मा है और निश्चय ध्येय की पूर्ति तब होगी जब तुम हेय रूप देह को छोड़ दोगे।'10 ३. विभूति के लिए तन्त्र-मन्त्र का प्रयोग हेय विभूति को सर्वस्व मानने वाले को भेद विज्ञान कैसे हो सकता है? आज लौकिक प्रयोजनों के लिए श्रावक तो श्रावक श्रमण भी तंत्र-मंत्र, गंडा, ताबीज, रक्षासूत्र, माला, मंत्रित नारियल आदि का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। साधुओं द्वारा तंत्र-मंत्र का लौकिक कार्यों के लिए प्रयोग अविचारितरम्य हो सकता है। इस विषय में आचार्यश्री लिखते हैं 'जो विभूति के लिए तन्त्र-मन्त्र के पीछे दौड़ रहे हैं, उन्हें न तो अपने पुण्य पर विश्वास है और न जिनवाणी पर। चमत्कार में लुट रहे हो, पर आत्म-चमत्कार को खो रहे हो। यदि संसार के देवी-देवता कुछ देते होते तो वे स्वयं अपनी आयु को क्यों नहीं बढ़ा लेते। ध्यान रखना अज्ञानी चमत्कारों में घूमता है, ज्ञानी चेतन चमत्कार में रमण करता है।" 'दिशाबोध' अक्टूबर 2007 में श्री सुरेश 'सरल' की इस विषय में प्रकाशित कुछ पंक्तियाँ समाज के दिशाबोध के लिए उद्धृत करना जरूरी समझता हूँ, ताकि आचार्यश्री की भावना और स्पष्ट हो सके। वे लिखते हैं 'किसी जैन साधु को तन्त्र-मन्त्र की सेना के साथ देखें तो विश्वास कर लें कि उन्हें जैनागम का ठोस ज्ञान नहीं है। फलतः भटकन की चर्या में जी रहे हैं। उनके पास दो-दो, चार-चार श्रावकों के समूह जावें और कर्म सिद्धांत का अध्ययन करने को मनावें। जो मान जावें, उनमें परिवर्तन की प्रतीक्षा करें और जो न मानें तो उन्हें धर्म की दुकान चलाने वाला व्यापारी मानें। ऐसा व्यापारी जिसे अपने लाभ और यश की चिंता है, परन्तु समाज और धर्म की नहीं। ४. अन्य श्रावकों को विघ्नकारक भक्ति भी उपादेय नहीं प्रायः देखा जाता है कि अनेक श्रावक मंदिर में प्रवेश करते ही अपने मधुर कण्ठ से इतने जोर-जोर से भक्ति करना प्रारंभ कर देते हैं कि पहले से शांत स्वर में भक्ति कर रहे श्रावकों का ध्यान अनायास ही भक्ति से विचलित हो जाता है तथा उनका ध्यान नवप्रविष्ट भक्त की ओर चला जाता है। उनके लिए आचार्यश्री कहते हैं___ 'भक्ति तो करना पर विवेक के साथ करना ताकि अन्य श्रावकों को अन्तराय नहीं पड़े। हम कभी-कभी भक्ति करते समय विवेक खो देते हैं कि हमने तो नियम लिया है कि भगवान् की वेदी के सामने खड़े होकर ही जाप करेंगे। लेकिन उसके बाद आपने सोचा कि कितने लोग मन मसोस करके आपकी पीठ की ही वंदना कर चले जाते हैं। काश, मैं भगवान् के चेहरे को देख लेता। यहाँ आपने दर्शनावरणी कर्म का बन्ध कर लिया। जिनवाणी में लिखा है कि एक व्यक्ति पाठ कर रहा है और आपने इतने जोर से आवाज
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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