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________________ 16 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 रस- अपामार्ग का रस कटु तथा तिक्त होता है। विपाक - पकाने पर अपामार्ग का स्वाद कटु होता है। वीर्य यह उष्णवीर्य औषधि है। दोषकर्म - अपामार्ग कफ-वात शामक तथा कफ-पित्त संशोधक है। संस्थानिक कर्म बाह्य शोधहर (सूजन को दूर करने वाला) वेदना स्थापन (दर्दनाशक) लेखन, विषघ्न, त्वग्दोषहर और व्रणशोधन है। यह शिरोविरेचन भी है। आभ्यन्तर- पाचन संस्थान- यह रोचन, दीपन, पाचन, पित्तसारक और कृमिघ्न है। इसके बीज दुर्जर (कठिनाई से पचने वाले) होते हैं। रक्तवह संस्थान- अपामार्ग हृदय, रक्तशोधक, रक्तवर्द्धक और शोथहर है। श्वसन संस्थान- यह कफ निःसारक है। मूत्रवहसंस्थान - यह अपामार्ग मूत्रल अश्मरीनाशन (पथरी) और मूत्राम्लता नाशक है। त्वचा यह स्वेदजनन, कुष्ठघ्न और कण्डुघ्न है। सात्मीकरण - यह कटु पौष्टिक और विषघ्न है। उत्सर्ग - इसका क्षार त्वचा, फुफ्फुस, अमाशय, यकृत और पित्त के द्वारा बाहर निकलता है। प्रयोग: दोष प्रयोग - यह कफ - वात रोगों में प्रयुक्त होता है। कफ रोगों में संशोधनार्थ इसके तण्डुल का नस्य देते हैं और पैत्तिक रोगों में इसका स्वरस पिलाते हैं। संस्थानिक प्रयोग बाह्य शोथवेदनायुक्त विकारों में इसका लेप करते हैं। नेत्ररोगों में विशेषतः अत्रण शुक्ल (फूली) में इसकी जड़ मधु में घिसकर अज्जन लगाते हैं। व्रणों (घाव) में इसका स्वरस लगाते हैं। वृश्चिक (बिच्छू) और सर्प के दंश स्थान पर इसका लेप करते हैं। कर्णशूल में इसके क्षार से सिद्ध तेल डालते हैं। नस्य के लिए इसके तण्डुल के चूर्ण का प्रयोग होता है। पामा आदि चर्मरोगों में इस अपामार्ग की जड़ घिसकर लगा हैं। - आभ्यन्तर:- पाचन संस्थान- यह अपामार्ग अरुचि, छर्दि, अग्निमांद्य, शूल, उदररोग, आध्मान, अर्श, पित्ताशामरी (पित्त की पथरी) तथा कृमिरोगों में इसका प्रयोग होता है। इसके बीजों की खीर बनाकर भस्मक रोग में देते हैं। रक्तवह संस्थान:- हृदय रोग, रक्तविकार, पाण्डु गण्डमाला, आमवात और शोध रोग में उपयोगी है। यह अपामार्ग रक्ताम्लता में भी प्रयुक्त होता है। श्वसन संस्थान:- कास और श्वांस में इसका क्षार कफ निकालने के लिए प्रयुक्त होता है। मूत्रवह संस्थान वस्तिशोथ, वृक्कशोथ, अश्मरी आदि रोगों में लाभकारी है। त्वचा:- कुष्ठ, चर्मरोग वर्णविकार आदि में प्रयोग करते हैं। सात्मीकरण:- सामान्य दौर्बल्य में इसका सेवन कराते हैं। सर्पविष में इसका मूल कालीमिर्च के साथ पीसकर पिलाते हैं।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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