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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 जैसा निर्मित किया गया। उसके भीतर जो भी मंत्रोच्चार या पूजा के स्वर निकलेंगे, वे सीधे आकाश में नहीं खो जायेंगे बल्कि वापस लौटकर प्रतिध्वनि पैदा करेंगे। ओम् का उच्चारण करें या मंत्र बोलें, प्रतिध्वनि के कारण एक सर्किल, एक वर्तुल निर्मित होता है। उस वर्तुल का आनंद ही अद्भुत है। पद्मासन में बैठी प्रतिमाएं भी एक वर्तुल का निर्माण करती हैं। दोनों जुड़े हुए पैरों पर दोनों हाथ रखे हुए ध्यानस्थ मुद्रा में तो पूरा शरीर वर्तुल का काम करने लगता है। इस वर्तुल के कारण शरीर की विद्युत् फिर कहीं बाहर नहीं निकलती। एक सर्किट निर्मित होता है। सर्किट के निर्मित होते ही हम बाहर के विचारों से शून्य होने लगते हैं। ध्वनि भी विद्युत् का एक रूप है तभी तो यह रेडियो तरंगों के रूप में परिवर्तित करके सैकड़ों कि.मी. भेजी जा सकती हैं। मंत्र ध्वनि का वर्तुल बना कि भीतर विचारों का कोलाहल शांत होने लगता है। मंदिर के गुम्बज से वर्तुल बनाने की बड़ी अद्भुत प्रक्रिया है। ध्वनि से गहरा संबंध है, मंदिर की आर्किटेक्चर का। संस्कृत या प्राकृत में जो ध्वनि है, उसका प्रभाव शब्दगत की अपेक्षा ध्वनिगत ज्यादा है। हमारे शास्त्र 'श्रुत' कहलाते हैं क्योंकि पूर्वाचार्यों ने भगवान् महावीरस्वामी के निर्वाण के पश्चात् 683 वर्ष तक श्रुत-परंपरा से शास्त्रों का ज्ञान, एक गुरु से दूसरे शिष्य तक गया। जब शास्त्र लिपिबद्ध होने लगे तो यह 'श्रुत' या फोनेटिक प्रभाव लुप्त होने लगा। जैसे 'ऊँ' के अर्थ की अपेक्षा इसका ध्वनिगत महत्त्व ज्यादा है। मंदिर में की जाने वाली पूजा की ध्वनिगत उपयोगिता ज्यादा है, क्योंकि मंदिर के गर्भगृह में उच्चारी गई ध्वनि वर्तुल बनाती है। वह वर्तुल प्रतिध्वनि, मूल ध्वनि से मिलकर तीव्रनाद (Intense Sound) पैदा करता है। इस प्रकार मंदिर एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो ध्वनि के माध्यम से हमारे/आपके भीतर शांतिदायी, सुखद और प्रीतिकर भाव को जगाने का अद्भुत काम करता है। देवपूजन/जिनपूजन के लिए आवश्यक शुद्धि जिनेन्द्र भगवान् के अभाव में उनकी प्रतिमा का पूजन पुण्यबंध का हेतु है। देवपूजन के लिए अंतरंग शुद्धि और बहिरंग शुद्धि करनी चाहिए। मन के बुरे विचारों को दूर करना अंतरंग शुद्धि है तथा विधिपूर्वक स्नानादि करना बाह्य शुद्धि है।" जिनपूजा के २ रूप१. पुष्प आदि में जिन भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है। २. जिनबिम्बों में जिन भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है। किन्तु अन्य देव हरिहरादिक की प्रतिमा में जिन भगवान् की स्थापना नहीं करना चाहिए। जैसे शुद्ध कन्या में ही पत्नी का संकल्प किया जाता है, दूसरे से विवाहिता में नहीं। पुष्पादि से स्थापना अहंत, सिद्ध को मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को क्रम से भोजपत्र या पाटे पर हृदय में स्थापित करना चाहिए।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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