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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 संस्पर्शित हों, जो पूजा करते समय पल-प्रतिपल मिल रही है। यह जानें कि 'पूजा' के क्षण, हमारे केवल अपने क्षण होते हैं। शेष क्षण तो मोह और ममता के कटघरे में कैद रहते हैं। परिवार के खाते में चले जाते हैं। पूजा है- 'स्वसमय में जीना। पूजा के अलावा जो समय है, वह परसमय है। 'परसमय' यानि राग के अनुबंध और द्वेष के उत्पीड़न रूप संसार प्रवर्तन का समय। 'परसमय' यानि हमारी मूर्छा और आसक्ति का फैलाव।। जैन संस्कृति में प्रतिमा' शब्द का प्रयोग अतिविशिष्ट गुणों से युक्त परमात्मा पद को प्राप्त व्यक्ति विशेष की प्रतिकृति के लिए किया जाता है। उसमें रूप गौण और गुण की प्रधानता रहती है। जबकि मूर्ति (स्टेच्यु) किसी भी व्यक्ति की प्रतिकृति के लिए अभिहित है। मूर्ति में उस व्यक्ति के बाहरी रूप की अधिक साम्यता होती है। भगवती आराधना में प्रतिमा को 'चैत्य' शब्द से संजित किया है। चैत्यं प्रतिबिम्बमिति यावत्। प्रत्यासत्तेः श्रुतयोरेवार्हत्सिद्धयोः प्रतिबिंबग्रहणं। आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना में लिखा है कि अरिहंत आदि की प्रतिमा के दर्शन और पूजन से उनके गुणों का स्मरण हो जाता है तथा इससे अशुभ कर्मों का संवर होता है। इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि में जिनबिंब (प्रतिमा) कारण होते हैं और प्रतिमा की भक्ति (चैत्य-भक्ति) आत्म-स्वरूप की प्राप्ति में सहायक होती है।' पूजा का ध्येय कुछ प्रश्न मेरे मानस में आंदोलित होते हैं कि आखिर अरिहंत देव-प्रतिमा की पूजा क्यों की जाती है? परमात्मा तो सर्वव्यापी निराकार हैं फिर मंदिर जाकर वहाँ पूजा करने की क्या आवश्यकता है? पूजा के संबन्ध में पहली बात तो यह है कि वह है मूर्त से अमूर्त की यात्रा। मूर्ति को प्राण दिये बिना वह पत्थर है। प्राण दिये जाने के बाद पूजा का आरंभ होता है। जैसे ही मूर्ति को प्राण दिये गये वैसे वह जीवंत व्यक्तित्व हो गया। जीवंत में आकार और निराकार दोनों समाविष्ट हो जाते हैं। जहाँ जीवन है वहाँ आकार और निराकार का मिलन है। जब तक मूर्ति पत्थर है, तब तक आकार है और जैसे ही उसकी प्राण-प्रतिष्ठा हुई वह जीवंत हो गयी। निराकार का द्वार खुल गया उसके दूसरी तरफ, इस प्रकार पूजा है आकार से निराकार की यात्रा। मूर्ति पूजा का एक और आधार है आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबन्ध है। दोनों के संबन्ध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए। मूर्ति वह सेतु है क्योंकि अमूर्त परमात्मा से सीधा कोई संबन्ध स्थापित नहीं हो सकता। आपके या हमारे सारे अनुभव मूर्त के अनुभव हैं। हमारे पास निराकार का एक भी अनुभव नहीं है।' आचार्य रजनीश ने मूर्ति पूजा के एक प्रवचन में कहा- महावीर की मूर्ति के सामने आप बैठे हैं। महावीर की चेतना तो अनंत में खो गयी है। इस मूर्ति के सामने बैठकर आप अपनी पूरे के पूरे प्राणों की ऊर्जा को आज्ञाचक्र पर इकट्ठा करके छलांग लगा दें मूर्ति के मस्तिष्क में तो तत्क्षण वह विचार महावीर की चेतना तक संक्रमित हो जायेगा।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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