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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 'अयथाकालमरण' नाम प्रदान करते हैं। राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक में 'अप्राप्तकालमरण', 'अपवायुष' और 'अकालमृत्यु' का प्रयोग है। धवला जी, गोम्मटसार आदि ग्रंथों में 'कदलीघातमरण' शब्द दृष्टिगोचर होता है। __'अकाल एव जीवितभ्रंशोऽकालमृत्युः।' अर्थ- असमय में बद्ध आयु:स्थिति के पूर्व में ही जीवित का नाश होना अकालमृत्यु अथवा अकालमरण है। तात्पर्य यह है कि भुज्यमान आयु (वर्तमान भोगी जाने वाली आयु) का एक समय शेष रहते भी मरण होता है, तो वह अकालमरण है। जैसे कोई मनुष्य आयु 90 वर्ष भोगते हुए दुर्घटना आदि में रक्तक्षय हो जाने से 50 वर्ष की उम्र में (अथवा 90 वर्ष से पूर्व कभी भी) मरण हो जाता है, तो उसे अकालमरण, अयथाकालमरण, अपमृत्यु, कदलीघातमरण, अप्राप्तकालमरण आदि कहा जाता है। अकालमरण किस जीव का नहीं होता है? इस सम्बन्ध में आचार्य उमास्वामी ने एक स्वतंत्र सूत्र की रचना की है। उन्होंने पूर्ण आयु भोगकर मरण प्राप्त करने वालों की सूची अपने सूत्र में दी है, जिससे टीकाकारों ने शत प्रतिशत स्वीकार भी किया है। सूत्र इस प्रकार है "औपपादिक-चरमोत्तम-देहा-संख्येय-वर्षायुषोऽनपवायुषः॥२/५३॥ अर्थ- उपपाद जन्मवाले देव और नारकी, चरमोत्तम देह वाले अर्थात् तद्भव मोक्षगामी और असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमि के जीव परिपूर्ण आयुवाले होते हैं। अर्थात् इन जीवों की असमय में मृत्यु नहीं होती है। यह सामान्यतया नियम है कि देव, नारकी, भोगभूमि और कुभोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्च तथा तद्भवमोक्षगामी जीवों का अकालमरण नहीं होता है। अकालमरण किस जीव का हो सकता है? उपर्युक्त सूत्र की टीकाओं में यह निर्देश प्राप्त होता है कि इनसे अतिरिक्त जीवों का अकालमरण न होने के संबन्ध में कोई नियम नहीं है। आचार्य पूज्यपाद और आचार्य अकलंक भट्ट अपनी टीकाओं में लिखते हैं 'इतरेषामनियमः।' अर्थ- इनसे अतिरिक्त जीवों के यह नियम नहीं है।' यदि आचार्य उमास्वामी को यह दृष्ट होता है कि 'अकालमरण' होता ही नहीं है तब उन्हें यह सूत्र लिखने की आवश्यकता ही न पड़ती । कोई भी मतिमान इस सूत्र के तात्पर्य को सहज अनदेखा नहीं कर सकता है। आचार्य अकलंकस्वामी अकालमरण की सिद्धि में हेतु देते हैं कि 'अप्राप्तकाल में मरण की अनुपलब्धि होने से अकालमरण नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि जैसे कागज, पयाल आदि उपायों के द्वारा आम्र आदि फल अवधारित (निश्चित) परिपाककाल के पूर्व ही पका दिये जाते हैं या परिपक्व हो जाते हैं, ऐसा देखा जाता है, उसी प्रकार परिच्छिन्न (अवधारित) मरणकाल के पूर्व ही उदीरणा के कारण से आयु की उदीरणा होकर अकालमरण हो जाता है। आयुर्वेद के सामर्थ्य
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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