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________________ 66 अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 किया जा सकता है। आचारांग में कहा है- "तक्का जत्थ न विज्जई, मई तत्थ न गाहिया।" अर्थात् तर्क उस दशा का वर्णन नहीं कर सकता, मति उसका अनुभव ग्रहण नहीं कर सकती। "नैषा तर्केण मतिरापनेया"- तर्क के द्वारा, बुद्धि की समझ में आने का विषय नहीं है। परिवर्तन की अवस्थाएँ प्रसुप्त, सुप्त, जागृत, उत्थित और समुत्थित। • प्रसुप्तः- वह अवस्था जिसमें जीव गाढ़ मोह निद्रावश निरंतर संसार परिभ्रमण करता है। कर्मों का उपशम तथा क्षयोपशम हो सकता है परन्तु क्षय नहीं। आत्मा में निर्वाण की योग्यता होने पर भी प्रगाढ़ मोह निद्रा से योग्यता विकसित नहीं होती है। यही "अभव्यदशा" है। • सुप्तः- इस अवस्था में तन्द्रा, सुसुप्ति जैसी स्थिति रहती है। ज्ञान चक्षु नहीं खुल पाते साथ ही सत्य का दर्शन नहीं होता। यह आत्मा की प्रथम गुणस्थान की स्थिति है। तत्त्व के प्रति जिज्ञासा से सत्य को समझने की भावना जागृत होती है लेकिन सम्यक् बोध और यथार्थ दृष्टि नहीं। • जागृत:- ज्ञान के उदय से आत्मा स्व स्वरूप के बोध से मिथ्यात्व, संशय एवं अज्ञान से परे होती है। यह चतुर्थ गुणस्थान की अवस्था है। आत्मा ग्रन्थिभेद से अपूर्वकरण का अनुभव करता है। उपनिषद् में कहा है भिद्यते हृदय- ग्रन्थिरिददद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।। अर्थात् आत्मदर्शन से हृदय की समस्त ग्रंथियाँ नष्ट हो जाती हैं और समस्त संशय क्षीण हो जाते हैं। यह अवस्था आनन्दमय है। आत्मज्ञान प्रकाश से सम्यक्त्व का अधिकारी स्व पुरुषार्थ व पराक्रम सूर्य को प्रकाशित करता है। आचार्य संघदासगणी कहते हैं “जागरह। णरा णिच्च। जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि अर्थात् मनुष्य जागो। निद्रा का त्याग करो। जो जागता है उसकी बुद्धि भी जागती है। लोकोक्ति भी है “सोवै सो खोवै, जागै सो पावै।" • उत्थितथा:- “उठ्ठिए नो पमायए जागने के पश्चात् कहते हैं उठो प्रमाद न करो। दुर्लभ सम्यक्त्व को आत्मसात कर पुरुषार्थ सहित आगे अग्रसर होना आत्मा की उत्थित दशा है। यह पांचवें गुणस्थान की स्थिति है। धर्माचरण पर बढ़ने वाला श्रावक धर्म/गृहस्थ धर्म है। श्रावक उत्थित आत्मा है। •समुत्थितः- सम्यक् प्रकार से चलना समुत्थित है। जागृत आत्मा लक्ष्य करके मार्ग पर दृढ़ संकल्प से चलता है। यह छठे गुणस्थान की दशा है। इस दशा में साधक का विश्वास अत्यन्त दृढ़, स्पष्ट और स्थिर होता है। "पणया वीरा महावीहि।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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