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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 निशदिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भवनीर तिरैया। -सोलहकारण पूजा जयमाला अर्हत्पूजा भी वैयावृत्य- सामान्य जनों में यह विश्वास है कि साधु की सेवा करना ही वैयावृत्य है परन्तु आचार्यों ने साधु की वैयावृत्य के अतिरिक्त देव और शास्त्र की वैयावृत्य करने का भी निर्देश दिया है। श्रावक और साधक अरिहन्त की सेवा सुश्रूषा, पूजाभक्ति आदि के द्वारा महान् पुण्य का बन्ध करते हैं । यहाँ पर श्रावक को द्रव्य एवं भाव दोनों पूजाओं के द्वारा वैयावृत्य का निर्देश है और मुनि को केवल भावपूजा के द्वारा अरिहन्त की भक्ति करना चाहिए । जो श्रावक अरिहन्त की पूजा के निमित्त से जिनमन्दिर में जिनप्रतिमा को स्थापित करा के अरिहन्त की वैयावृत्य से स्वतन्त्र हो जाते हैं उनके लिए आचार्यों ने निर्देश दिया है कि भले ही प्रतिमा विराजमान कराना महान् पुण्य का कारण है परन्तु प्रतिमा विराजमान करा के जो समझते हैं कि मेरा सारा काम हो गया यदि ऐसा सोचकर पूजा करने नहीं आते हैं तो ऐसे व्यक्ति कुल सहित विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे कई उदाहरण प्रत्यक्ष देखने में भी आए हैं । आचार्यों ने मुनियों के साथ-साथ श्रावकों के भी छह आवश्यक बताए हैं जिनमें से प्रथम आवश्यक देवपूजा है । जिनेन्द्र भगवान् के गुणानुवादस्वरूप स्तुति वन्दना आदि करना देवपूजा कहलाती है । आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने भी अर्हत्पूजा की प्रेरणा दी है और कहा है कि श्रावक को आदर युक्त होकर सब पापों को नाश करने वाली, काम और दु:खों को दूर करने वाली अर्हत्पूजा अवश्य करनी चाहिए। अर्हत्पूजा में एक मेंढ़क की भक्ति से प्रसन्न होकर आचार्य ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कथन किया है। अरिहन्त भगवान् की पूजा करते हैं तो उसमें अरिहन्त भगवान् का कोई रागद्वेष नहीं है और न ही भगवान् का कुछ भला होता है और न ही भगवान् की पूजा करने से भगवान् खुश होकर किसी का भला करते हैं । अगर ऐसा माना जाए तो भगवान् की वीतरागता का अभाव हो जाएगा इसीलिए भगवान् की पूजा में अपने भाव और आत्म परिणामों से ही कल्याण होता है, इससे स्वयं की ही वैयावृत्य हो जाती है । अर्हत्पूजा में ही पंच परमेष्ठी की भक्ति समन्वित है और शास्त्र की पूजा भी समन्वित है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् और उनकी वाणी में कुछ भी अंतर नहीं है ऐसा आचार्यों का कथन है। अरिहन्त के गुणों की पूजन करते हुए हम अपने ही गुणों की पूजा करते हैं जिससे उन गुणों का प्रकटीकरण हो जाए। वैयावृत्य के अतिचार- वैयावृत्य के पाँच अतिचारों का वर्णन भी आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने किया है जो इस प्रकार हैं हरितपिधाननिधाने ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि। वैयावृत्यस्यैते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते।२२ अर्थात् निश्चय से हरितपत्र आदि से देने योग्य वस्तु को ढंकना तथा हरितपत्र आदि पर देने योग्य वस्तु को रखना, अनादर, विस्मरण और मत्सरत्व ये पाँच वैयावृत्य के अतिचार कहे जाते हैं। इन्हीं पाँचों अतिचारों की तरह आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी पाँच
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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