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________________ 31 अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 का नाम लिए बिना मात्र सिद्धांत की समीक्षा करते हैं। उन्होंने प्रतिपक्षी या समन्वयक जैनदर्शन का भी नाम लिए बिना मात्र उनकी समीक्षा की है। जैन परंपरा में अन्य परंपराओं के विचारकों के दर्शनों एवं धर्मोपदेशों के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाइं लगभग ई.पू. 3शती) में परिलक्षित होता है। इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के प्रवर्तकों यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर संबोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है। निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य परंपराओं के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीन काल का अन्यतम उदाहरण है। अन्य परंपराओं के प्रति ऐसा समादरभाव वैदिक और बौद्ध परंपरा के प्राचीन साहित्य में हमें कम ही उपलब्ध होते हैं। स्वयं जैन परंपरा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी। परिणाम स्वरूप यह महान् ग्रंथ जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहां से अलग कर परिपार्श्व में डाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परंपराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य दर्शनों और परंपराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत कहकर उनकी आलोचना भी करता है। भगवती में विशेष रूप से मंखलि-गोशालक के प्रसंग में तो जैन परंपरा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर देती है। ऋषिभाषित में जिस मंखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है, यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम परवर्ती जैन दार्शनिक हरिभद्र, यशोविजय आदि की उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परंपरा में अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान् है। अन्य दर्शनों की एकांतवादिता की समीक्षा की दिशा में किये गये प्रयत्नों में सर्वप्रथम नाम सिद्धसेन दिवाकर का आता है। उन्होंने अपने ग्रंथ 'सन्मतितर्क' में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि किसी दर्शन का कौन सा सिद्धान्त किस नय अर्थात् दृष्टिकोण के आधार पर सत्य है। उन्होंने जैनदर्शन के नयवाद की अपेक्षा से अन्य दर्शनों के सिद्धांतों की सापेक्षिक सत्यता का दर्शन कराया। उनकी इस दृष्टि का कुछ प्रभाव समन्तभद्र की आप्त-मीमांसा पर भी देखा जाता है। उन्होंने यह बताया कि वेदान्त (औपनिषदिक वेदान्त) संग्रहनय से, बौद्ध दर्शन का क्षणिकता का सिद्धांत ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से तथा न्याय-वैशेषिक दर्शनों के सिद्धान्त व्यवहार नय की अपेक्षा से सत्य प्रतीत होते हैं। यही दृष्टि आगे चलकर समत्वयोगी आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी विकसित हुई। जैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रंथों में अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दसवीं में योगविद्या, बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु सिद्धसेन ने यह विवरण
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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