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अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 स्थलों को तुलनात्मक रूप से देखा जा सकता हैसर्वार्थसिद्धि
व्याकरणमहाभाष्य 1. अनन्तस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा। (स.1.3, 1.14) (महा. पृ. 335) 2. बहुरोदनो बहुः सूप इति। (स.1.16) (महा. पृ. 21) 3. कारीषोरग्निरध्यापयति। (स.5.22), महा.3.1.2) 4. तद्यथा संगतं घृतं संगतं तैलमित्युच्यते। एकीभूतमिति गम्यते। (स.7.2)(महा. 2.1.1) 5. कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वक्तर्यधीनम्। (स.9.2)(महा. प्र. 1.8) 6. अनुदरा कन्येति। (स.1.14) (महा. पृ. 42) 7. अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः। (स.1.33), (महा.2.1.1) 8. अयं मे कर्णः सुष्ठु श्रृणोति। (स.1.19), (महा.1.2.2. पृ. 59) 9. अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि। अनेन कर्णेन सुष्ठु श्रृणोमि। (स.1.19) (महा.1.2.2) 10. द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानम्। (महा.प्र. 4.22) 11. तद्भावस्तत्त्वम् (महा. पृ.59), तस्य भावस्तत्त्वम् (स.1.2) 12. अवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः (स.) (महा.2.2.2)
उक्त समान उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि पातञ्जल महाभाष्य और सर्वार्थसिद्धि में पर्याप्त शब्द साम्य है। किञ्चित् भिन्नता एवं किञ्चित् समानता वाले शब्दसाम्य के सैकड़ों उदाहरण देखे जा सकते हैं। यदि पतंजलि पूर्ववर्ती हैं तो पूज्यपादाचार्य पर अन्यथा पूज्यपादाचार्य का पतंजलि पर पर्याप्त प्रभाव कहा जा सकता है दोनों ही स्थितियों में पूज्यपादाचार्य की व्याकरणनदीष्णता तो सिद्ध है ही। सोमदेव ने शब्दार्णवचन्द्रिका में 'अनुपूज्यपादं वैयाकरणाः' कहकर उनके व्याकरण-नैपुण्य की प्रशंसा की है। ६. शंकानिवारण
सूत्र की संरचना का कार्य अतीव कठिन होता है। इस कारण सूत्र में कभी-कभी पारम्परिक आगम से विरोध प्रतीत होने लगता है। ऐसे स्थलों पर सर्वार्थसिद्धिकार प्रत्येक पद का सांगोपांग व्याख्यान करते हुए बड़ी कुशलता से शंका का निवारण कर देते हैं। इस संदर्भ में कतिपय स्थल द्रष्टव्य हैं
'सौधर्मेशान.....नवसु ग्रैवेयकेषु.....' (4.19) सूत्र में 'नवग्रैवेयकेषु' न कहकर दोनों पदों को पृथक्-पृथक् कहने की संगति वे 'नवसु' पद से नौ अनुदिशों का ग्रहण करके अपनी कुशलता का परिचय देते हैं। अन्यथा सूत्र में नौ अनुदिशों का उल्लेख न होना प्रत्येक आगमाभ्यासी के लिए शंका उत्पन्न कर सकता था।
इसी प्रकार 'पीतमद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु' (4.22) की व्याख्या करते समय शंका उत्पन्न हो जाती है क्योंकि आगम में द्वितीय कल्प तक पीत लेश्या, बारहवें तक पद्मलेश्या तथा आगे शुक्ल लेश्या मानी गई है। सूत्र की शब्दावली से ऐसी संगति बैठाना कठिन है। तब वे संगति बैठाते हुए स्पष्ट कर देते हैंसौधर्म, ऐशान
पीत लेश्या सानत्कुमार, माहेन्द्र
पीत, पद्म लेश्या