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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव आचार्य समंतभद्र एवं महात्मा गाँधी: एक तुलनात्मक दृष्टि - डॉ. रामजी सिंह 'सर्वोदय' शब्द भले ही संस्कृत साहित्य एवं इसके प्रामाणिक शब्दकोषों में नहीं है। लेकिन सर्वोदय की भावना प्राचीन वैदिक आर्य एवं नीति ग्रंथों में पर्याप्त रूप से व्याप्त है। ऐसा क्यों हुआ, इसका एक उत्तर तो यही दे सकता हूँ कि सर्वोदय एक सामासिक शब्द है जो सर्व+उदय, इन दो शब्दों के योग से बना है। अत: अलग से इनको संयुक्त कर स्वतंत्र रूप से शब्द कोश में देने की आवश्यकता नही थी। लेकिन इस शब्द की भावना इतनी सुरम्य एवं प्रखर है कि इसे "वाचस्पत्यम्" या "शब्द कल्पद्रुम' आदि वृहद संस्कृत शब्दकोशों में नहीं है। फिर संपूर्ण वेद, उपनिषद, गीता और वाल्मीकीय रामायण में भी इसका प्रयोग नहीं मिलना एक संयोग या कुसंयोग हो सकता है। जबकि वैदिक संस्कृति में सर्वोदय की भावना प्रभूत रूप से विद्यमान है। आश्चर्य तब होता है जब जैन आचार्य समन्तभद्र की पुस्तक युक्त्यनुशासन में "सर्वोदय" शब्द सर्वोदय तीर्थ के रूप में प्रयुक्त किया गया है। "सर्वोदय" में "सर्व" शब्द बहुवचन में "सब" का बोध होता है। 'सब' का दूसरा अर्थ "सब प्रकार से" या सर्वप्रकारेण माना जायेगा। सब प्रकार का अर्थ भौतिकअध्यात्मक, अभ्युदय-निः श्रेयस, प्रेय-श्रेय के अलावा आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि सबों को समाहित करता है।? महात्मा गाँधी ने सर्वोदय का उपरोक्त अर्थ मानते हुए एक नया अर्थ भी प्रदान करने का प्रयास किया है जिसकी प्रेरणा संभवतः उन्हें बाइबिल एवं जान रस्किन की पुस्तक "Anto the Last" ली है। यह कारण है कि इस पुस्तक का जब गुजराती भाषा में गाँध जी ने छायानुवाद किया तो उसका नाम गुजराती में 'अन्त्योदय' हुआ, भले ही हिन्दी में "सर्वोदय" रखा गया। बाईबिल में एक अत्यन्त मनोरम एवं हृदय स्पर्शी स्थान है कि सर्वोदय की भावना अंतिम व्यक्ति के कारण से ही आरंभ होनी चाहिए। इस को ध्यान में रखकर गाँधी जी ने अपनी आखिरी प्रसिद्ध तावीज की व्याख्या में कहा था कि जब हमें कोई असमंजस हो या निर्णय लेने में दुविधा हो तो उसका निर्णय करते समय हमें चाहिए कि हमारा हमारे काम से अधिक अंतिम व्यक्ति लाभान्वित होता है तो वह काम करना चाहिए। इसके पीछे मानवता का परम उत्कर्ष तो है ही, एक आध्यात्मिक विचार यह है कि भगवान दरिद्र नारायण है। जो व्यक्ति दीन-हीन, दुखी-दरिद्र, और आकिंचन है, उसमें भगवन का दर्शन करना ही सार्थ है। गीता में कहा गया है-"दरिद्रान् भर-कौन्तेय।" रवीन्द्र नाथ ने भी गीतांजलि में कहा है कि भगवान का चरम स्थान अंतिम, पददलित एवं पीड़ित व्यक्ति के पास है। रामकृष्ण ने तो जेई जीव, तेई शिव कह कर जीव को ही ईश्वर माना। गाँधीजी के आध्यात्मिक शिष्य संत विनोबा भावे ने अपनी पुस्तक "स्वराज्य- शास्त्र" के राज्य के विकास कर चार श्रेणियों में क्रमशः एकायतन, अल्पायतन, बहुआयतन के साथ
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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