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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 अनेकान्तवाद के आधार पर अपेक्षा भेद से पिता को पुत्र और पुत्र को पिता कहा जा सकता है। आत्मा को भी अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों कहा जा सकता है। आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं निश्चयदृष्टि या तत्त्वदृष्टि से आत्मा एक है, परन्तु व्यवहार दृष्टि से आत्मा अनेक है। इस प्रकार दार्शनिकों के समस्तवाद (द्वैतवाद, अद्वैतवाद, भेदभाव, अभेदवाद आदि) अनेकान्तवाद में उसी प्रकार मिल जाते हैं जिस प्रकार सभी नदियाँ महासागर में मिलकर तद्रूप हो जाती हैं। वस्तु के स्वरूप का विवेचन करने वाला कोई भी एकांगी मत तब तक ही अपूर्ण और असत्य होता है, जब तक वह अनैकान्तिक दृष्टि से नहीं देखा जाता है अर्थात् जब तक वह निरपेक्ष कथन करता है। जैसे किसी घड़ी के विभिन्न पुर्जे अलग-अलग बिखरे पड़ें हैं तो उन अलग-अलग पुर्जी को घड़ी नही कहा जाता है। परन्तु वही पुर्जे जब एक साथ मिल जाते हैं तब वे घड़ी बनकर उपयोगी सिद्ध हो जाते हैं। उसी प्रकार जब अलग-अलग बिखरे एकान्तवाद मिलकर एक हो जाते हैं या परस्पर सापेक्ष बन जाते हैं तब वे अनेकान्तवाद बनकर वस्तु स्वरूप के सर्वाश के बोधक बन जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी के कथनानुसार जिस व्यक्ति की अनेकान्त रूपी तीसरी आँख खुल जाती है उसके लिए कोई भी मत मिथ्या नहीं होता है। वह व्यक्ति सापेक्षता की कसौटी पर ही सत्य और असत्य की परीक्षा करता है। उसके लिए जो कथन सापेक्ष है, वह सत्य है और जो कथन निरपेक्ष है, वह असत्य है।' हरिभद्रसूरि ने कहा- महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नहीं है और कपिलादि के प्रति मेरा द्वेष भी नहीं है। जिनका वचन युक्तिसंगत है, वे ही मुझे मान्य हैं। एक बात अनेकान्त के आलोक में ही कही जा सकती है। क्योंकि जो एकान्त के प्रति आग्रहशील होता है वह अन्य सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता है और ऐसी स्थिति में पूर्ण सत्य से अनभिज्ञ ही रहता है। पूर्ण सत्य की प्राप्ति अनेकान्त से ही होती है। गोपी को नवनीत की प्राप्ति तभी होती है, जब वह मथानी की एक रस्सी के छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। इसी प्रकार एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को मुख्य बनाने पर ही सत्य का अमृत हाथ लगता है। अनेकान्तवाद रूपी सूर्य के उदित होने पर सारे एकान्तवाद के घनघोर बादल तितर-बितर होकर अस्तित्वहीन हो जाते हैं। अनेकान्त की उपस्थिति में सारे संघर्ष, मतभेद और वैमनस्य का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। एकांगी और दुराग्रही दृष्टिकोण की पकड़ कमजोर पड़ते ही संघर्ष समाप्त हो जाता है। समस्या चाहे व्यवहार की हो या अध्यात्म की, दर्शन की हो या राजनीति की, सारी समस्याएँ अनेकान्त के आधार पर सुलझाई जा सकती हैं। संसार के स्थूल और सूक्ष्म दोनों पर्यायों (परिवर्तनों) को जानने के लिए अनेकान्त श्रेष्ठ दार्शनिक पद्धति है। इससे संघर्ष की चिंगारियां स्वतः समाप्त हो जायेंगी और अन्ततः विश्वशान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। डॉ. सागरमल जैन ने भी अनेकान्त को दार्शनिक सिद्धांत की अपेक्षा एक व्यावहारिक पद्धति ही अधिक कहा है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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