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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 67 और तर्क बुद्धि । इन्द्रियाँ वस्तु के पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने के लिए असक्षम है। इसका मुख्य कारण है इन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से व्यक्त गुणधर्म को ही जान पाती हैं। अव्यक्त गुणधर्मों को जानने के लिए इन्द्रियाँ असमर्थ है। दूसरा कारण यह है कि इन्द्रियों की क्षमता व्यक्ति के क्षयोपशम पर भी निर्भर रहती हैं। दूर स्थित किसी सूखे वृक्ष को देखकर एक व्यक्ति उसे ठूंठ कहता है और दूसरे व्यक्ति को वही ठूंठ मनुष्य के रूप में दिखाई देता है। इस कारण से हम वस्तु को वस्तु के यथार्थ स्वरूप से नहीं जानकर, वस्तु को उस रूप में जानते हैं, जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष वस्तु को उपस्थित करती हैं। अतः हमारा ज्ञान स्वतंत्र न होकर इन्द्रियाँ सापेक्ष है। डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि हमारा ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष होने के साथसाथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जिस कोण से वस्तु देखी जाती है। दूर से वस्तु छोटी और समीप से बड़ी दिखाई देती है। भिन्न-भिन्न कोण से लिया गया टेबल का फोटो भिन्न-भिन्न दिखाई देगा। अतः इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त अनुभविक ज्ञान दिशा, काल और व्यक्ति सापेक्ष होता है।" मानव अपने इन्द्रियानुभूत ज्ञान की सत्यता की प्रमाणिकता को जानने के लिए अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है, परन्तु तर्कबुद्धि भी कारण कार्य, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचारों से घिरी हुई होने से बौद्धिक ज्ञान भी सापेक्ष ही होता है।" मनुष्य इन अपूर्ण इन्द्रियों और तर्कबुद्धि से पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु उतनी नहीं है, जितनी व्यक्ति उसे जान पाता है। इसलिए व्यक्ति अपने आशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान से निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। वस्तु का स्वरूप इतना गुह्य है कि साधारण मनुष्य के लिए उसका पूर्णत: ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। भाषा की सीमितता और सापेक्षता यदि कोई पूर्ण ज्ञानी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर भी ले तो भी सत्य को निरपेक्ष रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। सत्य को निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है, परन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि अभिव्यक्ति के लिए भाषा ही एकमात्र साधन है, जो अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। एक ओर वस्तु के धर्मों की संख्या अनन्त है और दूसरी ओर भाषा के शब्दों की संख्या सीमित है। इस कारण से वस्तु के अनेक धर्म अकथित ही रह जाते हैं।" भाषा में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो वस्तु पूर्ण स्वरूप को प्रकट कर सके। एक शब्द वस्तु के एक निश्चित धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। पुनः वस्तु में ऐसे अनन्त धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिए भाषा के पास कोई शब्द नहीं है। उदाहरण के लिए कोयला, कोयल और भंवरा सभी काले होने पर भी उनके कालेपन में भिन्नता है । परन्तु भाषा के माध्यम से इनके अलग-अलग कालेपन को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। इतना ही कहा जा सकता है कि 'काला है'। 46 मानव की भिन्न-भिन्न अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा में भिन्न- भिन्न शब्द नहीं है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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