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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 57 "अविनीत के ज्ञान आदि गुण नष्ट हो जाते है यह उसकी विपत्ति है और विनयी के ज्ञानादि गुणों की संप्राप्ति होती है यह उसकी सम्पत्ति है, इन दोनों बातों को जानने वाला ही (ग्रहण और आसेवन रूप) सच्ची शिक्षा को प्राप्त करता है।" जैन आगमों में शिक्षा के मुख्यतः दो प्रकार बताये है- ग्रहण शिक्षा तथा आसेवन शिक्षा। ग्रहण शिक्षा से तात्पर्य ज्ञान संग्रह से है वहीं आसेवन शिक्षा में संग्रहीत ज्ञान को आचरण में उतारने पर बल दिया जाता है परन्तु वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की यह विडम्बना रही है कि यहां शिष्य सूचना भरने वाला द्विमुखी पात्र बनकर रह गया है जिसमें तथा जिसके द्वारा सूचनाओं का मात्र आदान प्रदान ही किया जा सकता है, नि:संदेह ज्ञान विस्फोट के इस युग में छात्र को तथाकथित उच्चपदवी धारी तो बनाया जा रहा है परन्तु मनुष्य को मनुष्य बनाने वाले कारखाने (विद्यालय) आसेवन शिक्षा की उपेक्षा किये जा रहे हैं, आज ज्ञान को आचरण में उतारने के प्रयास लुप्त से होते जा रहे हैं। अतः 'समणसुत्तं' ग्रन्थ में आचरण शून्य ज्ञान की उपेक्षा करते हुए कहा है कि - "सुबहु पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि।। " अर्थात् जन्मान्ध व्यक्ति के आगे लाखों, करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है वैसे ही चारित्र शून्य व्यक्ति का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ है, क्योंकि शिक्षा की गरिमा उसके आचरण की शुद्धता से है और ऐसा शुद्धाचारी शिष्य ही वास्तव में शिक्षा प्राप्ति का अधिकारी माना जाता है अतः शिक्षाशील के आठ लक्षणों को बताते हुए 'समणसुत्तं' में कहा गया है " जो हंसी मजाक नहीं करता हो। जो इन्द्रिय तथा मन पर नियन्त्रण रखता हो। जो किसी का रहस्योद्घाटन नहीं करता हो। जो अश्लील (आचारहीन) न हो। जो विशील दूषित आचारवान् न हो। जो अति रस लोलुप न हो। 7. जो क्रोध न करता हो। जो सत्य में रत हो।" यदि वर्तमान में इस आचार संहिता का अनुपालन तथा अनुसरण छात्रों द्वारा किया जाये तो निश्चय ही शिक्षा की समसामयिक समस्याओं से निजात पाई जा सकती है, क्योंकि बात चाहे मूल्यों के गिरावट की हो या बढ़ते हुए छात्र असन्तोष की, या फिर वैचारिक मतभेदों का सघन जाल हो अथवा सत्य, अहिंसा, समभाव का सिमटता हुआ संसार, कहीं न कहीं तो हमारी मूल में ही भूल छिपी हुई है परन्तु बात यहीं तक सीमित नहीं है, समस्या
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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