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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 समणसुत्तं में जीवन दिशा दर्शन - शानू जैल मानव मस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है, इसमें प्रतिपल, प्रतिक्षण विचार तरंगें तरंगित होती रहती है। प्रत्येक मनुष्य के जहन में अपने जीवन के सम्बन्ध में एक सवाल, एक जिज्ञासा ज़रूर ही उठती होगी कि जीवन कैसे जिया जाए ? अथवा सही दिशा को कैसे जाना जाए। कभी-कभी स्वयं मनुष्य द्वारा अपनी अन्तदृष्टि से इसका उत्तर खोज लिया जाता है तो कभी जीवन पर्यन्त भी वह अपनी जिज्ञासा को शान्त नहीं कर पाता है, बस यही दशा वर्तमान युग की भी है। वर्तमान युग ज्ञान-विज्ञान का युग है, सूचना व प्रौद्योगिकी का युग है। आज बौद्धिक विकास से प्राप्त ज्ञान राशि और विज्ञान व तकनीकी की विपुल सामग्री के बाद भी मनुष्य अशान्त, विक्षुब्ध तथा तनावग्रस्त है, जिसका कारण है"जीवन-मूल्यों का निरन्तर क्षरण।" वस्तुतः एक अट्टालिका की संस्थिति उसकी समतल आधारभूमि की समीचीन आधाारशिला पर ही आधारित होती है, अर्थात् सम्यक् प्रकार से रखी गई नींव की ईंट पर ही एक सुदृढ़ भवन का खड़ा हो पाना संभव होता है परन्तु आज जीवन मूल्यों का उत्तुंग भवन बनाने में न तो आधारभूमि को समतल करने का प्रयास माता-पिता तथा परिवारजन द्वारा ठीक प्रकार से किया जा रहा है और न ही हमारे विद्यालय तथा महाविद्यालय नींव की ईंट रखने का कार्य बखूबी निभा पा रहे हैं परिणामतः मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो गया है कि वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में सर्वत्र विकट स्थितियां उत्पन्न हो गई हैं। परन्तु, प्रबुद्ध सर्वोदयविचारक आचार्य विनोबा भावे जी की अद्भुत प्रेरणा तथा प्रशान्त साधक क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र प्रसाद वर्णी जी व विभिन्न जैन सम्प्रदायों के श्रमण वर्ग के परिश्रम का प्रतिफल है- "समणसुत्तं" ग्रन्थ, जिसकी सारगर्भिता तथा समग्रता इस तनावपूर्ण घने अंध कारमय जीवन में आस्था की एक अद्वितीय किरण का कार्य कर सकती है। के0 दामोदरम् जी ने कहा है कि “जीवन-भूत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को भविष्य के रूप में बदलने का संघर्ष है। "इसी परिप्रेक्ष्य में, यह कहना उचित होगा कि वर्तमान तथा भविष्य के दिशादर्शक के रूप में 'समणसुत्तं ' ग्रन्थ में निहित शैक्षिक तत्वों की चर्चा यहां प्रासंगिक भी है तो उपादेय भी। शैक्षिक तत्वों की चर्चा के अर्न्तगत सर्वप्रथम शिक्षा को परिभाषित करना आवश्यक है। वास्तव में, 'शिक्षा' शब्द समग्रता तथा सातत्य (Continuitly) का परिचायक है। शिक्षा को जीवन का चरमोत्कर्ष बताते हुए कहा गया है कि - “Education is life, for life and throughout life. And life is of and for education. So the saying is true that education is life.“, शिक्षा के सम्बन्धों में जब हम जैन दृष्टि से सोचते हैं तो कहा जाता है कि प्रारम्भ में मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों के माध्यम से होती थी परन्तु
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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