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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 होता है जो कि इसमें अल्प रूप में भी परिलक्षित नहीं होता है। तृतीय विशेषता यह है कि विषय कलेवर पर्याप्त होने के कारण पाठक को अन्य किसी ग्रंथ को जरूर देखना चाहेगा, जो कि अपेक्षित नहीं है, इतना अवश्य है कि संदर्भ की जिज्ञासा से वह किसी ग्रंथ को जरूर देखना चाहेगा, जो कि अपेक्षित भी है। चौथी विशेषता यह है कि पारंपरिक विधा को छोड़कर, जिसके कारण अधिकांश भाग संदर्भ से ही परिपूरित हो जाता है, इसमें लेखकों ने मात्र उन संदर्भो को आधार बनाकर स्वयं के शब्द दिये हैं, जिससे यह संकलन संपुष्ट होकर लेखकों के मौलिक चिंतन का पिटक बन गया है। इसी प्रकार के कोश अपरिग्रह, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि विषयों पर भी निर्मित होने चाहिए। पुस्तक की हार्ड बाउंड जिल्द इसकी आयु प्रदाता है, इसके पृष्ठ भी उच्च तकनीक से निर्मित होने से टिकाऊ हैं। जल्द ही इसे पुस्तकालयों का सौभाग्य बनना चाहिए जिनसे पाठकगण पर्याप्त लाभ ग्रहण कर सकें। यदि इसका अंग्रेजी रूपांतरण हो सके तो यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्वत्-भोग्य हो सकेगी। प्राकृत-अध्ययन शोध केन्द्र राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) जयपुर परिसर, जयपुर (राज.) दृढ़निश्चयी: आचार्य शान्तिसागर महाराज पिता ने कहा कि यदि मुनि ही बनना है तो मेरी मृत्यु के बाद बनना, उसके पूर्व नहीं। सहज स्वीकार कर लिया कि ठीक है। मन में किंचित् भी भय नहीं कि आज वैराग्य है, कल रहे, न रहे, कल आयु बचे, न बचे, जो उत्तम है, उसे कल पर न टालो, अभी कर लो। किन्तु नहीं, स्व के प्रति आश्वस्त।। काल की ओर से निश्चिंत।। कितनों के भीतर पलती है यह आश्वस्तता/यह निश्चिंतता? निश्चित ही बिरलों के भीतर ही।। जिनको स्त्री का स्पर्श तो दूर, स्त्री की कल्पना भी स्खलित हो जाने को महान कारण भासती है, उनके लिए तो इस बाल ब्रह्मचारी का जीवन परीकथाओं के सदृश है। यह बाल ब्रह्मचारी अर्द्ध यात्रा में थक गई एक वृद्धा को अपने कांधे पर लाद शिखर जी की वंदना करवाता है। मात्र वृद्ध को ही नहीं, अपितु एक क्लांत पुरुष को राजगिरि की। मानो पीठ पर स्त्री हो या पुरुष इससे इसे कोई अंतर ही नहीं पड़ता।। दोनों के प्रति एक ही भाव/ एक से भाव। दोनों ही जीव और दोनों को ही आवश्यकता इस समय एक उपकारी की। ऐसा सहज, स्वाभाविक, निसर्गज ब्रह्मचर्य निश्चित ही संसार में दुर्लभ है। उनका गृहस्थ जीवन भी कठोर स्वानुशासन का उत्तम व दुर्लभ उदाहरण रहा।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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