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________________ 38 अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 " बालगाकोडिमित्त परिगहगहणं ण होई साहूणं । भुंजेइ पापिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्म्मि ।।17।। " 'जहाजावरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण हिदि हत्थेसु । जह लेह अप्पबहुयं तत्तो पुण जाई णिग्गोदं ||18|| सूत्रपाहुड़ 2 इस लेपटॉप की रक्षा की, खराब होने पर सुधारने की चिंता आकुलता मन को संतापित करेगी व मुनिराज निर्विकल्प कैसे रह सकते हैं? मोबाईल फोन भी स्पष्ट परिग्रह है तथा इसके उपयोग में भी स्थावर हिंसा है। इसके अतिरिक्त इन कीमती उपकरणों के लिए श्रावकों से याचना करने का दोष है। क्षेत्र मर्यादा का भंग है व मोह का प्रतीक है। कूलर के प्रयोग से स्पर्शन इन्द्रिय विजय मूल गुण का भंग है और परीषह का सावध प्रतिकार करने से परीषह सहन गुण भी नहीं रहता है। अपरिग्रह महाव्रत का भी भंग होता है। इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग आरंभ है और इनका संग्रह परिग्रह है। आरंभ परिग्रह के दोष, मूलगुणों के भंग का दोष, अहिंसा महाव्रत एवं अपरिग्रह महाव्रत के भंग का दोष होने से इन भौतिक उपकरणों का प्रयोग करने वाले सच्चे गुरु नहीं हो सकते। संयम का निघात होने से वे असंयमी हो गए। अतः आचार्य कुंदकुंद की आज्ञा के अनुसार ऐसे असंयमी मुनियों को प्रणाम एवं उनका विनय नहीं करना चाहिए। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांति सागर जी महाराज ने संपूर्ण आरंभ परिग्रह के त्याग का उच्च आदर्श स्थापित किया था। बाह्यय दिगम्बर भेष धारण करते हुए यदि लेपटाप, कूलर, मोबाईल फोन आदि का संग्रह एवं उपयोग किया जाए तो यह वस्त्र पात्र के संग्रह उपयोग ? से कम दोष पूर्ण नहीं कहा जा सकता। अभी 8 फरवरी, 2009 में आचार्य सुकुमालनंदि जी ने अहमदाबाद में एक क्षुल्लक जी को मुनि दीक्षा प्रदान की थी। उन्होंने उस समय मुनि के मूलगुणों के बारे में समझाया उसका जो वर्णन वर्धमान संदेश महावीर जयंती विशेषांक के पृष्ठ 23 पर छपा है वह है। " आचार्य श्री ने 28 मूलगुण का विस्तृत स्वरूप समझाते हुए नवीन मुनि को रुपया पैसा, मोबाइल आदि भौतिक उपकरणों से दूर रहने व निरंतर स्वाध्याय में तल्लीन हाने का उपदेश दिया।'' जो मुनि महाराज शेविंग के लिए 2-4 रूपए की ब्लेड का भी उपयोग नही करके हाथ से बाल उखाड़ते हैं वे कैसे कीमती उपकरण रखेंगे और प्रयोग करेंगे ? पूर्ण अपरिग्रहत्व, निरारंभत्व एवं अहिंसा दिगम्बर जैन मुनि के प्राणवत् हैं। भौतिक प्राणों के जाने पर भी मुनिराज अहिंसा व अपरिग्रह महाव्रत का भंग नहीं करते। मेरा उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना करना नहीं है। मैं तो केवल आगम की बात बताना चाहता हूँ। मेरा तो सभी मुनिराजों से करबद्ध निवेदन है कि वे अर्हत भगवान के समान इस साधु परमेष्ठीपद की गरिमा बनाए रखें और इस की अवमानना नहीं करें। मुझे अत्यधिक वेदना है कि आज मुनिराजों के आचरण में जो ह्रास हुआ है उसके लिए शिथिलाचार शब्द भी छोटा पड़ता है। वस्तुतः इस मुनि के चारित्रिक शैथिल्य के लिए हम श्रावक भी उत्तरदायी हैं। दिगम्बर मुनि संस्था पर यह संकट आया है। अधिक दुःख तो
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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