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________________ अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010 इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियों की जिनेश्वरों ने आगम में निंदा की है। ये पांचों इन्द्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करने वाले मुनियों के प्रतिपक्षी" हैं। ये पांचों ही जिनधर्म बाह्य हैं। इनको मूलच्छेद नाम का प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। 76 उक्त पार्श्वस्थादि मुनियों के स्वरूप को शास्त्रों में जानकर उन्हीं जैसे प्रवृत्ति जिनके द्वारा की जा रही है उनके विषय में यह कथन सटीक है- जो मनुष्य यह जानते हुए भी कि अग्नि में हाथ देने से हाथ जल जायेगा। अग्नि में हाथ देता है तो उसका जानना न जानना समान है। यदि ज्ञान के अनुकूल मनुष्य का आचरण नहीं होता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है। यही आचार्य अमृचन्द्र ने कहा है- "यथा प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषवेलेन कूपपतनादि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिर्वा किं करोति न किमपि तथायं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीय चरित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न किमपीति । " जैसे दीपक को रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूपपतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई, वैसे ही जो मनुष्य श्रद्धान, ज्ञान सहित भी है परन्तु पौरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो श्रद्धान तथा ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं? अर्थात् कुछ हित नहीं कर सकते हैं। अन्त में यही कहना अपेक्षित समझता हूँ कि चारित्रहीन श्रमण आत्म हित और परहित विघातक होता है। समाज चारित्रहीन श्रमणाभासी साधुओं के प्रति सजग होकर कार्य करे जिससे धर्म और समाज की मर्यादा सुरक्षित रह सके। संदर्भः 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. श्रमयन्त्यात्मानं तपोभिरिति श्रमणाः । मूलाचार वृत्ति मूलाचार 884 नयचक्र 330 जं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्व महिलासु । अप्पियपिय माणादिसु तो समणो तो य सामइयं । । मूलाचार 521 ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । = लिंगं मुत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवते । । प्रवचनसार पंचविह चेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू । भावं भाविय पुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ॥ भावप्राभृत 97 दव्वंखेत्तं कालं भावं च पडुच्च तह य संघहणं । चरणम्हि जो पवटठइ कमेण सो णिरवहो होई । । मूलाचार मूलाचार 10/18 भ. आ. 421 8. 9. मूलाचार 4/155 10. मूलाचार 5/192 11. जत्थं कसायुप्पतिरभत्तिं दियदार इत्थि जणबहुलं । दुक्चामुवसग्गबहुलं भिक्खु खेत्तं विवज्जेऊ । । मूलाचार 20/158 12. मूलाचार 5/160 13. मूलाचार 10/60
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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