SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 श्रमण आहार आदि की शुद्धि हमेशा रखते हैं। परिमार्जन पूर्वक ही शास्त्र कमण्डलु आदि को ग्रहण करते हैं और रखते हैं क्योंकि ठहरने में, चलने में ग्रहण करने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलेखन से प्रत्यन्त पूर्वक परिमार्जन करते हैं। यह उनके अपने पक्ष का चिह्न है । जो अपने पक्ष के चिह्नों या कार्यों के प्रति निरंतर सावधान हैं, वही श्रमण कहे जाते हैं किन्तु जो श्रमण के द्वारा कार्य करने योग्य न हों उन कार्यों को करता है वह श्रमणाभास है। श्रमणाभासी मुनिपने से हीन होते हैं, उनके विषय में कहा भी है पिडीवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भंजदे समणो। मूलट्ठाणं पत्ते भुवणेसु हवे समणपोल्लो॥ ९१८॥ मूलाचार जो श्रमण आहार, उपकरण और वसतिका का बिना शोधन किये ही ग्रहण करते हैं, वे मूलस्थान प्रायश्चित को प्राप्त होते हैं और संसार में मुनिपने से हीन होते हैं। __ हीनचारित्र वाले का तप संयम सब व्यर्थ है। मूल का घात करके बाह्य योग को ग्रहण करना भी निरर्थक है। अप्रासुक वस्तुओं के सेवन में सुख का इच्छुक मोक्ष का अधिकारी नहीं है। कुछ गृहस्थ साधुओं को फ्रिज का ठण्डा पानी और बर्फ तथा ईनो आदि अभक्ष्य पदार्थों के संयोग से भोजन सामग्री तैयार कर आहार कराते हैं और उनके द्वारा जीवराशि के घातपूर्वक आहार ग्रहण किया जाता है तो उनके विषय में मूलाचार में कहा है-सिंह अथवा ब्याघ्र एक या दो या तीन मृग को खावे तो हिंस्र है और यदि साधु जीवराशि का घात करके आहार लेवे तो वह नीच है। दोष युक्त आहार लेने वाले की संपूर्ण क्रियाएं निरर्थक है। वह श्रमणपने से भी बाह्य है। प्रवचनसार की गाथा 260 की टीका में कहा है-"आगमज्ञोऽपि-श्रमणाभासी भवति" अर्थात् इतना कुछ होने पर भी वह श्रमणाभास है। आत्मा को परद्रव्यों का कर्त्ता देखने वाले भले हों, लोकोत्तर हों श्रमण हों, पर वे लौकिकपने का उल्लंघन नहीं करते अर्थात् उन्हें लौकिक जानना चहिए। इन्हीं को पापश्रमण संज्ञा दी गई है अर्थात् जो श्रमण साधना नहीं कर सकता, वह पापश्रमण है। जो शिष्य न होकर आचार्य बन बैठा है, जो स्वेच्छाचारी है, स्वछन्दता से विहार करते हैं जिसने पूर्वापर विवेक को छोड़ दिया है। ऐसे ढुंडाचार्य को पापश्रमण कहा जाता है। और भी कहा है आयिकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उपदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु॥ ९६१॥ मूलाचार जो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और उपदेश को ग्रहण नहीं करता, वह पाप श्रमण है। इस प्रकार के मुनियों को सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा श्रमण मतवाले हाथी के समान अंकुश रहित होता है। जैसा कि मूलाचारकार कहते भी हैंजो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गारव और कषाय की बहुलता वाला है, वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है। सुचारित्रवान् साधु वैयावृत्य से हीन, विनय से हीन, खोटे शास्त्र से युक्त कुशील तथा वैराग्यहीन श्रमण का आश्रय न लेवें। मायायुक्त, अन्य का निंदक पैशून्यकारक पापसूत्रों के अनुरुप प्रवृत्ति करने वाला और आरंभ सहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना नहीं करना चाहिए (मूलाचार 957
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy