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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 अस्संजदं ण वंदे -मूलचन्द लुहाड़िया पूज्य आचार्य समंतभद्र स्वामी ने अपने प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ में पारमार्थिक (सच्चे) देव शास्त्र गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन अथवा धर्म कहा है। उसके विपरीत मिथ्या देव शास्त्र गुरु की मान्यता को मिथ्या दर्शन अथवा अधर्म कहा है। उन्होंने सच्चे गुरु का लक्षण बताया है "विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान तपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते।।" जो विषयों की आशा के वश में नहीं है, आरंभ व परिग्रह से रहित हैं। जो ज्ञान ध्यान व तप में सर्वदा लीन रहते हैं वे सच्चे गुरु होते हैं। उक्त लक्षण से विपरीत आचरण करने वाले गुरु कुगुरु कहे जाते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सच्चे गुरु का सकारात्मक लक्षण बताने के पश्चात् आगे तीन स्थानों पर मिथ्या आचरण वाले मिथ्या गुरु की विनयादि करने को भी सम्यग्दर्शन का दोष बताया है। अमूढ़ दृष्टि अंग के वर्णन में मिथ्यादर्शन एवं मिथ्यादृष्टियों की मन वचन काय से प्रशंसा वंदना करना मूढदृष्टि दोष है। गुरु मूढता में लिखा है “संग्रंथारंभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम्। पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयो पाखंडिमोहनम्॥ आरंभ, परिग्रह एवं हिंसा कार्य में संलग्न होने वाले गुरु संसार में रुलाने वाले होते हैं उनकी पूजा आराधना सत्कारादि करना गुरु मूढता है। पुनः लिखा है कि "भयाशा स्नेहलोभाच्च कुदेवाऽगमलिंगिनाम्। प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः।।" अन्य ग्रंथों में सम्यग्दर्शन के दोषों में 6 अनायतन भी गिनाए हैं। मिथ्या देव शास्त्र गुरु और उनके उपासक अनायतन हैं, इनसे संबंध रखना सम्यग्दर्शन को दूषित करता है। सच्चे गुरु की भक्ति नहीं करना जैसे सम्यग्दर्शन का दोष है वैसे ही मिथ्या गुरु की भक्ति करना भी सम्यग्दर्शन का दोष है। मिथ्या देव शास्त्र गुरु की भक्ति से हमारा अगृहीत मिथ्यादर्शन तो पुष्ट होता ही है साथ मिथ्यात्व की परंपरा को भी पोषण मिलता है। दिगम्बर जैन धर्म की तीर्थकर सदृश प्रभावना करने वाले आचार्य कुंदकुंद देव पाहुड़ में लिखते हैं। अस्संजदं ण वंदे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्ज। दुण्हति होंति समणा एगो विण संजदो होदि॥२६॥ असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए ओर जो वस्त्र रहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान है, दोनों में एक भी संयमी नहीं
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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