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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
34. आचार्य पद्मनंदी, पद्मनंदी पंचविंशतिका, 248, 249 35. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, 20/83-85 36. आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, 7/108-114 37. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, 20/140-141 38. आचार्य वसुनन्दी, वसुनन्दी श्रावकाचार, 249-269 39. आचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण, 7/116-111 40. पं. राजमल, पंचाध्यायी, 730 41. आचार्य कुंदकुंद, वारसाणुवेक्खा , 78 42. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि 9/26/443 43. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 9/6/20 44. आचार्य अकलंक, राजवार्तिक, 9/6/18 45. आचार्य जयसेन, प्रवचनसार की ता. वृ. टीका, 229
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उपज्जदि सण्णाणं जेण उवाएण तस्सुवायस्स । चिंता हवेइ बोहो अच्चंतं दुल्लहं होदि॥ ८३॥ वारसाणुवेक्खा
अर्थात् जिस उपाय (साधन) से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके उपाय के लिए जो चिंता (विचारणा) होती है वह बोध (ज्ञान) अत्यन्त दुर्लभ होता है जैसे चिन्तामणि रत्न।
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