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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 एकान्ती मन का निरसक हो, सब जग का हितकारक हो। अनेकान्तमय तत्त्व-प्रदर्शक शास्त्र वही अघ हारक हो"॥९॥११ आचार्यों का मत है कि- यथार्थ शास्त्र वही हो सकता है, जो यथार्थ आप्त द्वारा उपदिष्ट हो, आप्त की वाणी को कोई असत्य सिद्ध न कर सके, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, तर्क आदि प्रमाणों से विरोध रहित हो, वस्तु तत्त्व का कथन करने वाला हो, समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाला हो, हिंसा, झूठ, चोरी, अपरिग्रह, कुशील, अन्याय, मद्यपान, माया, मद, लोभ, राग-द्वेष आदि दोषों को दूर करने वाला हो, श्रीगणधर एवं उनके शिष्यों-आचार्यों द्वारा रचित हो, सच्चे मार्ग का प्रदर्शक हो, आत्मा को परमात्मा बनने के लिए निर्मल सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा सम्यक आराधना का उपदेशक हो-वही वास्तव में सच्चे शास्त्र कहलाने योग्य है। कविवर द्यानतराय लिखते हैं सो स्याद्वादमय-सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सु अंग। रवि शशि न हरै सो तम हराय सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय।१२ जिनागम के चार अनुयोग जिनागम-अध्ययन की सुविधानुसार शास्त्रों के विषय को चार भागों में रखा गया है'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' अर्थात् प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। १. प्रथमानुयोग- तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र आदि 63 श्लाका पुरुष, 169 महापुरुषों के आदर्शमय जीवन-चरित्र का वर्णन, बोधि, अर्थात् रत्नत्रय एवं समाधिमरण तक का वर्णन करने वाले शास्त्र को प्रथमानुयोग कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों का किसी एक महापुरुष के चरित्र का और त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन करने वाले पुराण, कथा, चारित्र को प्रथमानुयोग कहते हैं। उसके पठन, मनन व उपदेश आदि से पुण्य तथा बोधि-ज्ञान और समाधि प्राप्त होती है। यह अनुयोग सम्यग्ज्ञान का विषय है। उदाहरण स्वरूप- हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, महापुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, पाण्डवपुराण, श्रेणिकचरित्र आदि प्रथमानुयोग के ग्रंथ हैं। __आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में प्रथमानुयोग का लक्षण प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपिपुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोधः समीचीनः॥४३॥१३ यह प्रथमानुयोग तीर्थकर आदि महापुरुषों के जीवन आदर्शों के साथ पुण्य-पाप के फल का दिग्दर्शन कराता है। इसके अध्ययन से व्यक्ति के शुभ अशुभ परिणामों के अनुसार उसके उत्थान और पतन की भी स्पष्ट झलक होती है। यह कथा-उपकथा के माध्यम से गूढ़ तत्त्वों का अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से बोध कराता है। प्राथमिक जन भी इससे तत्त्वबोध सरलता से ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए यह प्रथमानुयोग कहलाता है। देवशास्त्र गुरु की पूजा, भक्ति, उपासना से पुण्यानुबन्धी पुण्य कमाकर सद्गति का
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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