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________________ 34 अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 संकल्प-विकल्प करना है। विशेषण विशेष्य भाव का विवेचन मन ही करता है इसलिये संकल्प रूप विशेष धर्म से मन भी एक उभयात्मक इन्द्रिय है। गौतम दर्शन में मन गौतम ने अपने न्याय में इन्द्रियों की गिनती करते हुए पाँच इन्द्रियों स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और श्रवण पर ही विचार किया है शेष को छोड़ दिया है। हिन्दू न्याय दर्शन में मन को इन्द्रिय माना गया है, पर पाँच इन्द्रियों से भिन्न बताया गया है क्योंकि पाँचों इन्द्रियां अपने- अपने निश्चित कर्म में स्थिर हैं। आँख का काम देखना है, पर वह घ्राण का सूंघने का काम नहीं कर सकती है। पर मन अपनी सभी अवस्थाओं और गुणों में प्रत्येक कर्मों में अपने को लगा सकता है। वात्स्यायन न्याय सूत्र 1.1.8 के अपने भाष्य में इसको इस तरह उद्धृत करते हैं भौतिकनिन्द्रियाणि नियतविषयाणि, सुगुणानां चैषमिन्द्रिय भाव इति। मनस्तु अभौतिक सर्व विषयञ्च नारू स्वगुणस्थेन्द्रियभाव इति। सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे सन्निधिमसन्निधि ञ्चास्य युगपज् ज्ञानानुत्पत्तिकारणं वक्ष्याम् इति। मनश्चेन्द्रियभावान्न वाच्यं लक्षणान्तरमिति तत्रान्तर समाचाराच्चैत् प्रत्येतव्यमिति। उद्योतकर भी अपने न्यायवार्तिक में इस विचार का प्रतिपादन करते हैं। मनः सर्वविषयं स्मृतिसंयोगाधारत्वात् आत्मवत्। सुखग्राहक संयोगाधिकरणत्वात् समस्तेन्द्रियाधिष्ठातृत्वात्। जैन दर्शन में मन अन्य दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी इन्द्रियां पाँच मानी गई जिनके संबन्ध में आलेख के प्रारंभ में ही चर्चा की जा चुकी हैं। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में पञ्चेन्द्रियाणि, द्विविधानि, निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्। अ.2सूत्र 15,16,17,18 में स्पष्ट किया है कि इन्द्रियां पाँच होती हैं और द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय के भेद दो प्रकार की है परन्तु मन को इन्द्रियों में सम्मिलित नहीं किया है। परन्तु "श्रुतमनिन्द्रियस्य" त:सू. 2-21 कहकर अनिन्द्रिय अर्थात् मन के कार्य स्पष्ट किये हैं। आचार्य हेमचन्द ने भी प्रमाण मीमांसा में लिखा है स्पर्शरसगन्धरूप शब्दग्रहणलक्षणानि स्पर्शनरसघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि द्रव्यभावभेदानि। यहाँ पर मन को न इन्द्रिय कहा है न अनिन्द्रिय, बल्कि सर्वार्थग्रहणं मनः (प्रमाण मीमांसा 1.1.25) मन सभी इन्द्रियों के अर्थ ग्रहण का काम करता है। इसका अर्थ नहीं लगाना चाहिये कि मन का अन्तर्भाव इन्द्रिय में हो गया। जैसा कि इन्द्रियों को द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय दो रूपों में विभक्त किया गया है। वैसे ही मन के भी भेद किये गये हैं यथा- द्रव्यमन और भाव मन। मनो द्विविधं द्रव्यमनोभावमनश्चेति (स. सि.अ.2/11/170/3) पुद्गलविपाकि कर्मोदियापेक्षं द्रव्यमनः (स.सि.अ.5/3/269/4) अर्थात् द्रव्यमन पुद्गल विपाकी नाम कर्म के उदय से होता है। रूपादियुक्त होने से द्रव्यमन पुद्गल द्रव्य की पर्याय है। जो हृदय स्थान में आठ पांखुडी के कमल के आकार
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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