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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
अर्थात् एकत्व रूप से आत्मा में 'आय' अर्थात् आगमन को समाय कहते हैं। इस दृष्टि से परद्रव्यों से निवृत्त होकर आत्मा में प्रवृत्ति का नाम समाय है। अथवा 'सं' अर्थात् समरागद्वेष से अबाधित मध्यस्थ आत्मा में 'आय' उपयोग की निवृत्ति समाय है। वह प्रयोजन जिसका है वह सामायिक है।
-(गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीव त. प्र. टीका गाथा 368)
उत्तराध्ययन के एक प्रश्नोत्तर में कहा है- जीव को सामायिक से क्या प्राप्त होता है? इसके उत्तर में कहा है-सामायिक से जीव सावध योगों (असत् प्रवृत्तियों) से विरति को प्राप्त होता है। (उत्तराध्ययन 29/8) ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा कि चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह 'साम्य' है और मोह क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम भाव ही 'साम्य' है। आत्मा की इसी अवस्था को सामायिक कहते हैं।
चारित्तं खुल धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
(प्रचनसार, 1/7) संपूर्ण व्याख्याओं का सार यही है कि सभी सावधयोग से रहित होकर, राग-द्वेषादि विकारों से परे आत्मा का साम्यभाव में स्थिर होना ही सामायिक कहलाता है।
जयधवला में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन चार प्रकारों से सामायिक के भेद किया है। (जयधवला 1/1/1, प्र. 81)। भगवती आराधना में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से तथा एक स्थल पर मन, वचन और काय-इन तीन भेदों से सामायिक के भेद माने हैं। (भ. आ. वि. टीका गाथा-116) इस प्रकार प्रकारान्तर से और भी प्रभेद मिल जाते हैं। किन्तु यदि गहराई से विचार करें तो हम पायेंगे इन भेदों के मूल में भी बाह्य निमित्तों की अपेक्षा ही मुख्य है। अन्तरंग निमित्त तो यहाँ एक आत्मपरिणति ही है।
कब कब सामायिक करना चाहिए इसका उल्लेख भी शास्त्रों में कई प्रकार से प्राप्त
होते हैं।
आवश्यकसूत्र में उल्लिखित सामायिक पाठ उच्चारण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस विषय पर शोधकार्य करके पर्याप्त दृष्टियों को सामने लाया जा सकता है। यहाँ मैं सामायिक के मात्र कुछ संदर्भ ही उल्लिखित कर रहा हूँ क्योंकि सामायिक विषय पर प्राचीन दिगम्बर-श्वेताम्बर आगमों का अध्ययन तथा उन पर शोधकार्य कर एक पूरे शोधप्रबन्ध की भी रचना हो सकती है और संभवतः हुई भी है। शास्त्रों में सामायिक के अतिचारों का भी उल्लेख है, मैं उस विस्तृत व्याख्या में भी नहीं जा रहा हूँ।
इस संदर्भ में मेरा मात्र यही कहना है कि सामायिक के पाठ आज हिन्दी तथा संस्कृत में भी उच्चरित होने लगे हैं। मेरा मानना है कि सामायिक पाठ मूल प्राकृत भाषा में ही होने चाहिए। भाषा का अपना एक महत्त्व होता है। प्राकृत जैनों के मूल आगमों की भाषा है । हम भले ही हिन्दी, संस्कृत या अंग्रेजी में उनके अर्थ श्रावकों को समझायें ताकि