SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 स-पर-तोस-दायत्थी अमिद-सरिसं वदे॥ पसत्थ-आद-तोसं च दाएज्ज पुण्ण-णंदणं। सूत्रार्थ का यथार्थ कथन, यथार्थ अध्ययन, हित युक्त एवं स्व एवं पर को आनंद देने वाले अमृत सदृश वचन सत्य कहे जाते हैं। जो वचन प्रशस्त, आत्मसंतोष एवं पूर्ण आनंद देने वाले होते हैं, वही सत्य है। सावगाण सच्चं सावगो होदि अणुव्वदी, सो हिंसजण्ण-कडु-णिट्ठर-वयणं भासेदि णो। अण्णेसिं च रहस्सं ण पगडेदि अवित्तु हिद-मिद पिय वयणं बोल्लदि सव्वेसिं संतोस-कारग-वयणं धम्म अणुसीलण-पगासं चरेदि णिच्चं। श्रावकों का सत्य श्रावक अणुव्रती होता है, वह हिंसाजनक, कटु एवं निष्ठुर वचन नहीं बोलता, दूसरों के रहस्य को प्रकट नहीं करता, अपितु वह हित-मित- प्रियवचन बोलता है, वह संतोषकारक वचन एवं धर्म अनुशीलन प्रकाशन हेतु विचरण करता है। थूलं वयणं बोल्लेज्जा सयं च पर- पादणं राग-दोसेण खीयत्तो। पाणाण रक्खदे सदा॥ जो स्वयं और दूसरे के लिए घातक स्थूल वचन नहीं बोलता, वह राग-द्वेष से रहित प्राणियों के प्राणों की रक्षा करता है। सच्चट्ठाणं सरस्सदि-सुधा रूवा वाणी हिद-मिदंकरी। तत्तो वदेज्ज भासेज्ज सव्वोवयारि-सारद। सच्चमहव्वदो सच्च-अणुव्वदो भासासमिदी वयण गुत्ती सच्चट्ठाणं सुठ्ठपजुत्त-एगो त्ति सद्दो कामगवी- समो।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy