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________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 वस्तु स्वरूप का अन्यथा मानना आत्मा का जैसा स्वभाव है, वैसा न मानना, न जानना, अन्यथा परिणमन एवं अन्यथा इच्छा करना अनंत कुटिलता है, उस कारण से आत्म स्वभाव, वस्तु स्वरूप आदि नहीं जान पाता है। आत्मा का विपरीत भाव वक्रता विरूपता आदि उत्पन्न करता है। जो अनंतानुबंधी माया कषाय का परिणाम है। कस्सिं कियत्तु माया मिच्छत्त-परिणाम-सहावम्हि अणंताणुबंधी मायाए अभावो णो, सम्मादिटिठ जादि। अणुव्वदी- सावगम्हि अप्पच्चक्खाण माया णो। महव्वदिम्ह पच्चक्खाण माया भावो, संजलण-सम्भावो जहक्खाद-चारित्तस्स संजलण मायाकसाया भावो। जाए जाए मायाए अभावो तेसुं अंसेसुं च अज्जवधम्मो। किसमें कितनी माया? मिथ्यात्व परिणाम स्वभाव वाले में अनंतानुबंधी माया का अभाव नहीं होता, अपितु सम्यक्दृष्टि के होता है। अणुव्रती श्रावक के अप्रत्याख्यान माया नहीं। महाव्रती में प्रत्याख्यान माया का अभाव होता है, संज्वलन माया कषाय का सद्भाव होता है, यथाख्यान चारित्र के संज्वलन माया कषाय का अभाव होता है। जितने अंशों में माया कषाय का अभाव है उतने अंशों में आर्जव धर्म होता है। अज्जवधम्मजणस्स बहिर अम्भितर- रिजुसणं। जोगे वि तं गुणं भावे वि। जो मणे सो वाए जो वाए सो देहे वि। सो लेगिग लोगोत्तर- उहय-दिट्ठिणा उज्जत्तु-भावी। तत्तो होदि असुहकम्माणं संवरो जादि। आर्जव धर्म वाले व्यक्ति के बाहर और भीतर ऋजुता रहती है योग में ऋजुता और भाव में भी ऋजुता। जो मन में वह वचन में, जो वचन में वह तन में। वह लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से ऋजुता भावी होता है। उससे अशुभ कर्मों का संवर होता है। अज्जवधम्मी मायाचागी। सो सम्मपउत्ती-जुत्तो चरेदि अस्सिं लोए सुहं आर्जव धर्मी माया का परित्यागी होता है। वह सम्यक् प्रवृत्ति युक्त इस लोक में सुख पूर्वक विचरण करता है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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