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मुनिवर-स्तुति
कबधौं मिलैं मोहिं श्रीगुरु मुनिवर, करिहैं भव-दधि पारा हो। भो उदास जोग जिन लीनो, छांडि परिग्रह भारा हो। इन्द्रिय- दमन नमन मद कीनो, विषय कषाय निवारा हो।। कंचन- कांच बराबर जिनके, निन्दक बंदक सारा हो। दुर्धर-तप तपि सम्यक् निज घर, मन-वच-तन कर धारा हो।। ग्रीष्म गिरि हिम सरिता तीरें, पावस तरुतल ठारा हो। करुणा भीन, चीन त्रस- थावर, ईर्या पंथ समारा हो।। मार मार, व्रतधार शील दृढ़, मोह महाबल टारा हो। मास छमास उपास, बास बन, प्रासुक करत अहारा हो।। आरत रौद्र लेश नहिं जिनकें, धरम शुकल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुध उपयोग विचारा हो।। आप तरहिं औरन को तारहिं, भवजनसिंधु अपारा हो। 'दौलत' ऐसे जैन जतिन को, नितप्रति धोक हमारा हो।।
- कविवर दौलतराम