SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 दुःख कहते है।। स्वामिकार्तिकेय दु:ख के पांच भेद बतलाते हुए लिखते हैं कि "असुरोदरीयि दुःखं सारीरं माणसं तहा विविह। खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्णकयं च पंचविह॥१६ अर्थात् पहला असुर कुमारों के द्वारा दिये जाना वाला दु:ख, दूसरा शारीरिक दु:ख, तीसरा मानसिक दु:ख, चौथा क्षेत्र से उत्पन्न होन वाला दुःख और पांचवां परस्पर में दिया जाने वाला दु:ख। दुःख के कारण- दुःख का कारण शरीर एवं बाह्यपदार्थों में ममत्व। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं कि "मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः। त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः॥"७ अर्थात् इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दु:खों का कारण है। इसलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्यविषयों में इन्द्रियों को रोकता हुआ अन्तरंग में प्रवेश करे। आचार्य गुणभद्र लिखते हैं कि"आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काड्.क्षन्ति तानि विषयान्विषयाश्च मान। हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्युर्मूलं ततस्तनुरनर्थपरं पराणाम्॥" अर्थात् सर्वप्रथम शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दुष्ट इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, वे अपने विषयों को चाहती हैं; और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की परंपरा का मूल कारण वह शरीर ही है। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि "भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः।। सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम्॥१५ अर्थात् इस जगत में संसार से उत्पन्न जो-जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं इस शरीर से निवृत्त होन पर फिर कोई भी दु:ख नहीं है। दुःख का कारण ज्ञान का ज्ञेय रूप परिणमनपण्डित राजमल्ल लिखते हैं कि "नूनं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थ परिणामि यत्। व्याकुलं मोहसंपृक्तंमर्थाछुःखमनर्थवत्। सिद्धं दुःखत्वमस्योच्चैाकुलत्वोपलब्धितः। ज्ञातशेषार्थसद्रावे तद्वभुत्सादिदर्शनात्॥"१६ अर्थात् निश्चय से जो ज्ञान इन्द्रियादि के अवलम्बन से होता है और जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रति परिणमनशील रहता है अर्थात् प्रत्येक अर्थ के अनुसार परिणामी होता है, वह
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy