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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 चेतन या अचेतन अथवा आत्मा और जड़- इन दो द्रव्यों का कथन भी उपर्युक्त रीति से किया जा सकता है। जैनदर्शन में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- इन छह द्रव्यों को स्वीकार किया गया है। जीव अथवा आत्मा के अतिरिक्त शेष सभी पांच द्रव्य अचेतन अथवा जड़ रूप हैं। यह हमारा भौतिक चिन्तन है। जब हम इन्ही द्रव्यों अथवा तत्त्वों पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करते हैं तो इन्हें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्वों के रूप में स्वीकार करते है। इन सात तत्त्वों के आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जीव अथवा आत्मा ही प्रमुख है। शेष छह तत्त्वों में से आस्रव और बन्ध- ये तीन तत्त्व आत्मा का अपकार करने वाले हैं, अतः हेय हैं और संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये तीन तत्त्व आत्मा का उपकार करने वाले हैं, अतः अन्त के ये तीन तत्त्व उपादेय हैं। आचार्य अकलंकदेव ने अपनी लघुकृति स्वरूप-संबोधन में मात्र पच्चीस कारिकाओं के माध्यम से आत्मा के विविध रूपों, धर्मों, गुणों अथवा पर्यायों का सापेक्ष अथवा स्याद्वाद पद्धति से कथन किया है। यह आत्मा अपने स्वरूप को अपने आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा के लिये अपनी आत्मा से अपने आत्मा के स्वरूप को अपनी आत्मा में लीन करे, ऐसी प्रेरणा देते हुये आचार्य अकलंकदेव कहते हैं स्वः स्वं स्वेन स्थितं स्वस्मै, स्वस्मात् स्वस्याविनश्वरम्। स्वस्मिन् ध्यात्वा लभेत् स्वोत्थमानन्दममृतं पदम्। आचार्य अकलंदेव ने अपनी इस लघुकृति में आत्मा का जो कथन किया है उसके मूल में परवादियों द्वारा संभावित प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। इसी क्रम में परवादियों द्वारा यह प्रश्न किया जा सकता है कि हे स्याद्वादियो ! आप लोग तो प्रत्येक वस्तु के विविध रूपों को स्वीकार करते हो। अर्थात् आपके मत में प्रत्येक वस्तु विधि रूप भी है और निषेध रूप भी है तो कृपया यह बतलाने का कष्ट करें कि आत्मा विधि रूप भी है और निषेध रूप भी है। आत्मा मूर्त रूप भी है और अमूर्त रूप भी है। एक साथ ये दो-दो धर्म कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि दोनों परस्पर में विरुद्ध हैं। और जिन धर्मों का आपस में विरोध हो वे दो धर्म एक ही वस्तु में एक साथ कैसे रह सकते हैं ? इसका उत्तर आचार्य अकलंकदेव ने अपनी लघुकृति स्वरूप-संबोधन में दिया है। वे कहते हैं कि स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्मपरधर्मयोः। समूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्॥ अर्थात् वह आत्मा स्वधर्म के कथन करने में और परधर्म का कथन करने में विधि रूप भी है और निषेध रूप भी है। साथ ही ज्ञानमूर्ति होने से आत्मा मूर्तिमान् भी है और ठीक उसके विपरीत अमूर्तिमान् भी है। इसी रहस्य का उद्घाटन करते हुये स्वरूप सम्बोधन परिशीलन में श्रमणसंस्कृति ने उन्नायक आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज कहते हैं कि- प्रत्येक द्रव्य में उभयरूपता है, जो द्रव्य सद्प है, वही द्रव्य असद्प भी है। स्व चतुष्टय से पदार्थ सद्प
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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