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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। समस्त लोकव्यवहार के ऐसे विषय जो हुए नहीं हैं, उनके आलम्बन से जो संकल्प मात्र को ग्रहण करता है, वह नैगम नय कहलाता है। इसको यहां प्रस्थ का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। ज्ञात हो यह नय एक को विषय नहीं करता अपितु मुख्य गौणरूप से सभी को विषय करता है। नैगम नय को सिद्धसेन आदि आचार्य नहीं मानते है। इसमें यह तर्क दिया जाता है कि यह नय उपचार है। वस्तुस्पर्शी विकल्प और वस्तु में आरोपित विकल्प दोनों में बड़ा अन्तर है। वस्तुस्पर्शी विकल्पों को सम्यग्ज्ञान की कोटि में स्थान देना तो अनिवार्य है। किन्तु यदि वस्तु में आरोपित विकल्पों को सम्यग्ज्ञान की कोटि में स्थान दिया जाये तो अनवस्था की सीमा ही न रहे। भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रह नय है। यथा सत्, द्रव्य घट आदि। स्याद्वादमंजरी के अनुसार विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानना संग्रहनय है। अन्य आचार्यों ने भी प्रायः इसके इसी तरह के स्वरूप का विवेचन किया है। वस्तुतः संग्रहनय एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो विश्व के सभी गुणधर्मों आदि भेदों को विस्मृत कर एक अखण्ड स्वरूप पर ही विचार करती है। इस नय के दो भेद किये गये हैं- स्व और पर।" संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार नय कहलाता है। इस नय में अर्थ का ग्रहण, शब्द के गुणधर्मों का ग्रहण किये बिना होता है। इस नय से लोक के समस्त भेदात्मक व्यवहारों का बोध होता है। इस दृष्टिकोण से 'सत्' अखण्ड न रहकर खण्डों में विभक्त हो जाता है। - पूज्यपाद ने ऋजु का अर्थ प्रगुण किया है अर्थात् जो सरलता को सूचित करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। यह नय भूत और भविष्य के चक्कर में न पड़कर मात्र वर्तमान काल के पदार्थों को ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि यह नय वर्तमान पर्याय द्वारा वस्तु का ग्रहण करता है। शब्दादिक नयों में शब्दों द्वारा वर्तमान पर्याय का ग्रहण होता लिंग, संख्या और साधन आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। व्यभिचार का वास्तविक अर्थ है, शब्द भेद होने पर अर्थभेद नहीं मानना, ऐसे व्यभिचारों को पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में अनेक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। नाना अर्थों का समारोहण करने वाला होने से समभिरूढ़ नय कहलाता है। इसको स्पष्ट करते हुए पूज्यपाद ने लिखा है कि नाना अर्थों को 'सम्' अर्थात् छोड़कर प्रधानता से जो एक अर्थ में रूढ़ होता है, वह समभिरूढ़ नय है। इस नय में पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में व्युत्पत्तिभेद में से भेद बतलाये जाते हैं। जैसे- इन्द्र, पुरन्दर, शक्र आदि पर्याय शब्दों के अर्थ भेद की दृष्टि समभिरूढ़ नय है। जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय कराने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं।60 अनेक नय सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने स्पष्ट किया है कि नैगमादि नय सूक्ष्म विषय वाले
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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